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पयणसारो ]
[ ५८६ का आस्रव नहीं होता है, परन्तु शुभोपयोगी साधुओं के मिथ्यादर्शन व विषयकषायरूप अशुभ आस्रव के रकने पर भी पुण्यात्रव होता है, यह भाव है ॥२४॥
भावार्थ-तन्त्र हो कार का है एक स्वतत्त्व दूसरा परतत्त्व, इनमें स्वतत्त्व अपना आत्मा है तथा पर तत्त्व अरहतादि पंचपरमेष्ठी हैं। इन पंचपरमेष्ठी के अक्षररूप मंत्रों के ध्यान से भव्य मनुष्यों को बहुत पुण्यबंध होता है तथा परम्पराय से मोक्ष हो सकता है और जो स्वतस्थ है वह मी दो प्रकार का है। एक सविकल्प स्वतस्व, दूसरा निर्विकल्प स्वतत्त्व । जहां यह विचार किया जावे कि आत्मा ज्ञाता, द्रष्टा आनंदमय है, वहां सविकल्प आत्मतत्व है, परन्तु जहां मन का विचार भी बंद हो जावे केवल आत्मा अपने आत्मा में तन्मय हो स्वानुभव रूप हो जावे वहां निर्विकल्प आत्मतत्व है। राग सहित सविकल्प तत्व कर्मों के आस्रव का कारण है जबकि वीतरागनिर्विकल्प तत्त्व कर्मों के आस्रव से रहित है । जब इन्द्रियों के विषयों से विरक्तता होती है तथा मन हलन चलन रहित अर्थात् संकल्प-विकल्प रहित होता है, तब यह निर्विकल्प तत्त्व अपने आत्मा के स्वरूप में सलकता है जो वास्तव में आत्मा का स्वभाव ही है। अथ शुभोपयोगिश्रमणलक्षणमासूत्रयति--
अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु' । विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया ॥२४६॥
अर्हदादिषु भक्तिर्वत्सलता प्रवचनाभियुक्त षु ।
विद्यते यदि श्रामण्ये सा शुभयुक्ता भवेच्चर्या ।।२४६५ सकलसंगसन्यासात्मनि श्रामण्ये सत्याप कषायलवावेशवशात् स्वयं शुद्धात्मवृत्तिमात्रेणावस्थातुमशक्तस्य परेषु शुद्धात्मवृत्तिमात्रेणावस्थितेष्वहंवादिषु शुद्धात्मवृत्तिमात्राचस्थितिप्रतिपादकेषु प्रवचनाभियुक्तेष च भक्त्या वत्सलतया च प्रचलितस्य तावन्मात्ररागप्रवर्तितपरद्रव्यप्रवृत्तिसंवलितशुद्धात्मवृत्तः शुमोपयोगिचारित्रं स्यात् । असः शुभोपयोगिश्रमणानां शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रत्वलक्षणम् ॥२४६॥
भूमिका—अब, शुभोपयोगी श्रमण का लक्षण सूत्र द्वारा कहते हैं
अन्वयार्थ- श्रामण्ये] श्रामण्य में [यदि] यदि [अहंदादिषु भक्ति:] अर्हन्तादि के प्रति भक्ति तथा [प्रवचनाभियुक्तेषु वत्सलता] प्रवचनरत जीवों के प्रति वात्सल्य [विद्यते] पाया जाता है तो [सो] वह [शुभयुक्ता चर्या ] शुभयुक्त चर्या शुभोपयोगी चारित्र [भवेत् ]
१. पदयणाहिजुत्तेसु (ज" वृ०) २. हवे (ज० वृ०)