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पवयणसारो ] खा लेता है अथवा स्पर्श भी करता है वह निश्चय से लोगों के कथन से व परमागम में कहे प्रमाण करोडों जीवों के समूह को नाश करता है ॥२२६-१, २२६-२॥ अथ पाणिगताहारः प्रासुकोप्यन्यस्मै न दातव्य इत्युपदिशति -
अपष्टिकुळे पिडं पाणिगयं व देयमण्णस्स ।
बत्ता भोत्तुमजोरगं भुत्तो वा होदि पडिकुट्ठी ॥२२६-१॥ अप्पडिकुठं पिंडं पाणिगयं णेव देयमण्णस्स अप्रतिकृष्ट आगमाविरुद्ध आहारः पाणिगतो हस्तगतो नैव देयो न दातव्योऽन्यस्मै वत्ता भोत्तुमजोरगं दत्त्वा पश्चाद्धोक्तुमयोग्यं भुत्तो वा होदि पडिकुट्ठो कथंचित् भुक्तो वा भोजनं कृतवान् तहि प्रतिकृष्टो भवति प्रायश्चित्तयोग्यो भवतीति । अयमत्र
----हस्सरशाहीर साबन न ददाति तस्य निर्मोहात्मतत्त्वभाबनारूपं निर्मोहत्वं ज्ञायत इति ।।२२६-३॥
उत्थानिका--आगे इस बात को कहते हैं कि हाथ पर आया हुआ आहार जो प्रासुक हो उसे दूसरों को न देना चाहिये ।
____ अन्वय सहित विशेषार्थ-(अप्पडिकुठं पिङ) आगम से जो आहार विरुद्ध न हो (पाणिगयं) सो हाथ पर आ जाये उसे (अण्णस्स गैव देय) दूसरे को नहीं देना चाहिये । (दत्ता भोत्तुमजोगं) दे करके फिर भोजन करने के योग्य नहीं होता है (भुत्तो वा पडिकुट्ठो होदि) यदि कदाचित् उसको भोग ले तो प्रायश्चित्त के योग्य होता है । यहाँ यह भाव हैकि जो हाथ में आया हुआ शुद्ध आहार दूसरे को नहीं देता है किन्तु खा लेता है उसके मोह-रहित आत्मतत्व की भावनारूप मोहरहितपना जाना जाता है ॥२२६-३॥
अथोत्सर्गापवादमैत्रीसोस्थित्यमाचरणस्योपदिशति-- बालो वा वुड्ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा । चरियं चरदु' सजोग्गं मूलच्छेदो जधा ण हवदि ॥२३०॥
बालो वा वृद्धो वा श्रमाभिहतो वा पुनर्लानो वा ।
चर्या चरतु स्वयोग्यां मुलच्छेदो यथा न भवति ।।२३०॥ बालवृद्धश्रान्तालानेनापि संयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमेवाचरणमाचरणीयमित्युत्सर्गः । बालवृद्धश्रान्तग्लानेन शरीरस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनभूतसंयमसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा बालबद्धधान्तालानस्थ स्वस्य योग्यं मद्धेवाचरणमाचरणीयमित्यपवादः । बालवृद्धश्रान्त
१. 'अप्पडिकुट्टाहार' इत्यपि पाठः । २. चरदि (ज० वृ०)।