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[ पवयणसारो यः खल्बनेकान्तकेतनागमशानबलेन सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदकज्ञानाकारमात्मानं श्रद्दधानोऽनुभवंश्चात्मन्येव नित्यनिश्चला वृत्तिमिच्छन् समितिपञ्चकाइकुशितप्रवृत्तिप्रवर्तितसंयमसाधनीकृतशरीरपात्रः क्रमेण निश्चलनिरुद्धपचेन्द्रियद्वारतया समुपरतकायवाङ्मनोव्यापारो भूत्वा चिवृत्तः परद्रव्यचङ्कमणनिमित्तमत्यन्तमात्मना सममन्यो। न्यसंबलनावेकीभूतमपि स्वभावभेदात्परत्वेन निश्चित्यात्मनैव कुशलो मल्ल इव सुनिर्भर निष्पीड्य निष्पोडच कषायचक्रमक्रमेण जीवं त्याजयति, स खल सकलपरद्रव्यशन्योऽपि विशुद्धशिज्ञप्तिमात्रस्वभावभूतावस्थापितात्मतत्वोपजातनित्यनिश्चलवत्तितया साक्षात्संयत एव स्यात् । तस्यथ चागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपधं सिवयति ।
भूमिका-अब आगमज्ञान-तत्वार्थश्रद्धान संयतत्व की युगपत्ता के साथ आत्मज्ञान की युगपत्ता को सिद्ध करते हैं, अर्थात् आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान, और संयतत्व इस त्रिक (तीनों) के साथ आत्मज्ञान के युगपतत्व को सिद्ध करते हैं
अन्वयार्थ-[पंचसमितः] पांच समिति युक्त, [पंचेन्द्रियसंवृतः] पांच इन्द्रियों का संवर वाला [त्रिगुप्तः] तीन गुप्ति सहित, जितकषायः] कषायों को जीतने वाला, [दर्शन ज्ञानसमग्रः] दर्शनज्ञान से परिपूर्ण [श्रमणः] जो श्रमण [सः] वह [संयतः] संयत [भणितः] कहा गया है।
टीकाजो पुरुष अनेकान्त से चिह्नित आगमज्ञान के बल, से सफल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित तथा विशद एक ज्ञान जिसका आकार है ऐसे आत्मा का श्रद्धान और अनुभव करता हुआ आत्मा में ही नित्य निश्चलवृत्ति को इच्छता हुआ, संयम के सघन रूप बनाये हुये शरीरपात्र पांच समितियों से अंकुशित प्रवृत्ति द्वारा प्रवर्तित शरीर को संयम का साधन बनाता हुआ, फिर निश्चल पंचेन्द्रियों के द्वारा-रुक जाने से काय, वचन, मन का व्यापार विराम को प्राप्त हुआ है, ऐसा होकर, चिवत्ति के लिये परद्रथ्य में भ्रमण का निमित्त जो कषाय समूह वह आत्मा के साथ अन्योन्य मिलन के कारण अत्यन्त एकरूप हो जाने पर भी स्वभाव भेद के कारण उसे पररूप से निश्चित करके कुशल मल्ल की भांति आत्मा से ही अत्यन्त मर्दन कर करके अक्रम से उसे मार डालता है, वह पुरुष वास्तव में, सकल परद्रध्य से शून्य होने पर भी विशुद्ध दर्शन ज्ञानमात्र स्वमाय रूप से अवस्थित आत्मतत्व से उत्पन्न नित्य निश्चल परिणति उस परिणति के द्वारा साक्षात् संयत ही है। और उसे ही आगमज्ञान-तत्वार्थश्रद्धान संयतत्व की युगपत्ता के साथ आत्मज्ञान को युगपत्ता सिद्ध होती है ॥२४०॥