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पत्रयणसारो ]
रागद्वेष का द्वैत प्रगट नहीं होता, जो सतत विशुद्ध दर्शन ज्ञान स्वभाव आत्मा का अनुभव करता है और ( इस प्रकार ) शत्रु-बंधु, प्रशंसा - निन्दा, लोष्ठकांचन और जीवन-मरण को, निविशेषतया ही (बिना अन्तर के ) ज्ञेयरूप से जानकर ज्ञानात्मक आत्मा में जिसकी परिगति अचलित हुई है, उस पुरुष को वास्तव में जो सर्वतः साम्य है सो साम्य संयत का लक्षण समझना चाहिये उस संयत के आगमज्ञान-तत्वार्थश्रद्धान-संयतत्व की युगपत्ता के साथ आत्मज्ञान को युगपत्ता है ।। २४१ ।।
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तात्पर्यवृत्ति
अथागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्वलक्षणेन विकल्प त्रययौगपद्येन तथा निर्विकल्पात्मज्ञानेन च युक्तो योsसी संयतस्तस्य किं लक्षणमित्युपदिशति । इत्युपदिशति कोऽर्थः इति पृष्टे प्रत्युत्तरं ददाति । एवं प्रश्नोत्तरपात निकाप्रस्तावे स्वापि स्वापि यथासंभवमिति शब्दस्यार्थी ज्ञातव्य:--
स सम्रणो श्रमणः संयतस्तपोधनो भवति । यः कि विशिष्टः ? समसत्तुबंधुवग्गोस म सुहदुक्खोसंसदसमो समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे शत्रुबन्धुसुखदुःखनिन्दाप्रशंसा लोकांचन जीवितमरणेषु समो समः समचित्तः इति । ततः एतदायाति । शत्रुबन्धुसुखदुःख निन्दाप्रशंसा लोकांचन जीवितमरणसनता भावनापरिणतनिजशुद्धात्मतत्वसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्ननिि कारपर माल्हादैकलक्षणसुखामृत परिपतिस्वरूपं त्रयं तदेवपरमागमज्ञानतत्वार्थ श्रद्धानसंयत
त्वानां यौगपद्येन तदा निविकल्पात्मज्ञानेन च परिणततपोधनस्य लक्षणं ज्ञातव्यमिति ॥ २४१ ॥ उत्थानिका - आगं आगम का ज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान, संयमोपना इन तोन विकल्परूप लक्षण से एक साथ युक्त तथा निर्विकल्प आत्मज्ञान से युक्त जो कोई संयमी होता है. उसका क्या लक्षण है, ऐसा उपदेश करते हैं । यहाँ " इति उपदेश करते हैं" इसका यह भाव लेना कि शिष्य के प्रश्न का उत्तर देते हैं । इस तरह प्रश्नोत्तर को दिखाने के लिये कहीं कहीं यथासम्भव इति शब्द का अर्थ लेना योग्य है ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( समसत्तुबंधुषग्गो) ओ शत्रु व मित्र समुदाय में समान बुद्धि का धारी है, ( समसुहदुक्खो ) जो सुख दुःख में समानभाव रखता है, (पसंसदिसमो ) जो अपनी प्रशंसा व निन्दा में समताभाव रखता है, (समलोकंणो ) जो कंकण और सुवर्ण को समान समझता है, ( पुणे ) तथा (जीविवमरणे समो ) जो जीवन तथा मरण को एकसा जानता है, वही (समणो ) श्रमण या साधु है । शत्रु बंधु, सुख दुःख, निन्दा प्रशंसा, लोष्ठ कंचन तथा जीवन मरण में समता की भावना में परिणमन करते हुए अपने ही शुद्धात्मा का सम्यक् अद्धान्, ज्ञान तथा आचरणरूप जो निर्विकल्पसमाधि उससे उत्पन्न निर्विकार परम आल्हादरूप एक लक्षणधारी सुखरूपी अमृत में परिणमण स्वरूप जो परम समताभाव है, सो ही उस तपस्वी का लक्षण है जो परमागम का ज्ञान, तत्त्वार्थ का श्रद्धान
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