Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 606
________________ ५७८ ] [ पवयणसारो अथारय सिद्धागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यसंयतस्य को. ग्लक्षणमित्यनुशास्ति समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो। समलोट्टकचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥२४१॥ समणश्रुबन्धुवर्गः समसुखदुःख: प्रशंसानिन्दासमः । समलोष्ठकाञ्चनः पुनर्जीवितमरणे समः श्रमणः ।।२४१।। संयमः सम्यग्दर्शनझानपुरःसरं चारित्रं, चारित्रं धर्मः, धर्मः साम्यं, साम्य मोहक्षोभविहीनः आत्मपरिणामः । ततः संयतस्य साम्यं लक्षणम् । तत्र शत्रुबन्धुवर्गयोः सुखदुःखयोः प्रशंसानिन्दयोः लोष्ठकाञ्चनयोर्जीवितमरणयोश्च समं अयं मम परोऽयं स्वः, अयमालावोऽयं परितापः, इदं ममोत्कर्षणमिदमपकर्षणमयं ममाकिञ्चित्कर इदमुपकारकमिदं ममात्मधारणमयमत्यन्तविनाश इति मोहाभावात् सर्वत्राप्यनुदितरागद्वेषद्वतस्य सततमपि विशुद्धदृष्टिज्ञप्तिस्वभावमात्मानमनुमवतः शत्रुबन्धुसुखदुःखप्रशंसानिन्दालोष्ठकाञ्चनजीवितमरणानि निविशेषमेव ज्ञेयत्वेनाक्रम्य ज्ञानात्मन्यात्मन्यचलितवृत्तेयंस्किल सर्वतः साम्यं तत्सिद्धागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यस्य संयत्तस्य लक्षणमालक्षणीयम् ॥२५१॥ भूमिका.–अब, आगमज्ञान-तत्वार्थश्रद्धान-संयतत्व की युगपत्ता के साथ आत्मज्ञान को युगपता जिसे सिद्ध हुई है ऐसे इस संयत का क्या लक्षण है सो कहते हैं ___ अन्वयार्थ-समशबन्धुवर्ग:] जिसे शत्रु और बन्धु वर्ग समान है, [समसुखदुःखः] सुख दुख समान है, [प्रशंसानिन्दासमः] प्रशंसा और निन्दा के प्रति जिसको समता है, [समलोग्ठकाञ्चनः ] जिसे लोष्ठ और सुवर्ण समान है, [पुनः] तथा [जीवितमरणे समः] जीवन-मरण के प्रति जिसको समता है, वह [श्रमणः ] श्रमण है। टीका-संयम सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक चारित्र है, चारित्र धर्म है, धर्म साम्य है, साम्य मोहक्षोभ रहित आत्मपरिणाम है । इसलिये संयत का साम्य लक्षण है। वहां, (१) शत्रु बन्धु वर्ग में, (२) सुख-दुःख में, (३) प्रशंसा-निन्दा में, (४) कंकड़ और सोने में, (५) जीवन-मरण में, एक ही साथ, (१) 'यह मेरा पर (शत्रु) है, यह स्व (स्वजन) है', (२) 'यह आलाद है यह परिताप है', (३) 'यह मेरा उत्कर्षण-बलवारी यह अपकर्षण घटती है', (४) 'यह मुझे अकिचित्कर है, यह उपकारक है', (५) 'यह मेरा स्थायित्व है, यह अत्यन्त विनाश है', इस प्रकार मोह के अभाव के कारण सर्वत्र जिसके १. दृष्टव्य-पवयणसारो गाथा ३ ।

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