________________
५७४ ]
[ पवयणसारो अन्वयार्थ—-[पुनः) और [यदि] यदि [यस्य ] जिसके | देहादिकष। शरीरादि के प्रति [परमाणुप्रमाणं वा] परमाणुमात्र स्तोक भी [ ] ममत्व [विद्यते] पाई जाए तो [स:] वह [सर्वागमधरः अपि] भले ही सर्वागम का धारी हो तो भी [सिद्धि न लभते] सिद्धि को प्राप्त नहीं होता !
टीका-सकल आगम के सार को हस्तामलकवत् करने से (हथेली में रखे हए आंवले के समान स्पष्ट ज्ञान होने से) जो पुरुष भूत-वर्तमान-भावी स्वोचित-पर्थयों के साथ समस्त द्रव्य समूह को जानने वाले आत्मा को जानता है, श्रद्धान करता है और संयमित रखता है, उस पुरुष के आगम ज्ञान-तत्त्वार्थ-श्रद्धान-संयतत्व की युगपत्ता होने पर भी, यदि यह किचितमात्र भी मोहमल से (राग द्वेष से) लिप्त होने के कारण शरीरादि के प्रति ममत्वभाव द्वारा मलिन होने से, निर्मल उपयोग में परिणत करके ज्ञानात्मक आत्मा का अनुभव नहीं करता, तो वह पुरुष मात्र उत्तने स्तोक मोहमल कलंक रूप कोले के साथ बंधे हये कर्मों से छुटकारा न पाता हुआ सिद्ध नहीं होता । इसलिये आत्मज्ञान शून्य (वीतरागनिर्विकल्पसमाधि रहित) आगमज्ञान-तत्त्वार्थ-श्रद्धान-संयतत्व को युगपत्ता भी अकिंचत्कर हो है ॥२३॥
तात्पर्यवृत्ति अथ सूत्रोक्तात्मज्ञानरहितस्य सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्वानां योगपद्यामप्यर्किचित्करमित्युपदिशति
परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो विज्जदि जवि परमाणुमात्र वा मूर्छा देहादिषु विषयेष यस्य पुरुषस्य पुनविद्यते यदि चेत् ? सो सिद्धि ण लहदि स सिद्धि मुक्ति न लभते । कथंभूतः ? सन्धागमधरो सर्वागमधरोपीति । अयमत्रार्थ:--सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां योगपद्ये सति यस्य देहादिविषये स्तोकमपिममत्वं विद्यते तस्य पूर्वसूत्रोक्तं निर्विकल्पसमाधिलक्षणं निश्चयरत्नत्रयात्मक स्वसंवेदनज्ञानं नास्तीति ॥२३६॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं जो पूर्व सूत्र में कहे हुए आत्मज्ञान से रहित है उसके एक साथ आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान तथा संयमपना होना भी कुछ कार्यकारी नहीं है । मोक्ष प्राप्ति में अकिंचित्कर है
___अन्वय सहित विशेषार्थ-(पुणो) तथा (जस्स) जिसके (देहादिएसु) शरीर आदिकों से (परमाणुपमाणं या) परमाणु मात्र अर्थात् अल्प भी (मुच्छा) ममत्वभाव (जदि विज्जदि) यदि है तो (सो) वह साधु (सव्वागमधरो वि) सर्व आगम को जानने वाला होते हुए भी (सिद्धि ण लहदि) मोक्ष को नहीं पा सकता है। सर्व आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान