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पवयणसारो ]
[ ५७३ श्रद्धान तथा संयमीपना इस भेद रत्नत्रय के होने पर भी अभेद या निश्चयरत्नत्रय स्वरूप स्वसंवेदनज्ञान की मुख्यता है ॥२३॥
भावार्थ-वृत्तिकार ने आत्मज्ञान पैदा होने की सीढ़ियां बताई हैं पहली (१) सीढ़ी यह है कि जिनवाणी को अच्छी तरह पढ़कर हमें सात तत्वों को जानकर उनका श्रद्धान करना चाहिये तथा विषय कषायों के घटाने के लिये मुनि वा गृहस्थ के योग्य व्रतादि पालना चाहिये। (२) दूसरी सीढ़ी यह है कि सिद्ध परमात्मा का ज्ञान, श्रद्धान करके उसमे कान का साकार करना चाहिये। (३) तीसरी सोढ़ी यह है कि अपने ही आत्मा को निश्चय से शुद्ध परमात्मा जानना, श्रद्धान करना व रागादि छोड़ उसी को भावना भानी। (४) चौथी सीढ़ी यह है कि विकल्प रहित स्वानुभव प्राप्त करना। यहां यद्यपि श्रद्धान ज्ञान चारित्र है तथापि कोई विकल्प या विचार नहीं है मात्र अपने स्वरूपा मन्द में मग्नता है, यही आत्मज्ञान है । यह सोढी साक्षात् मुक्तिसुन्दरी के महल में पहुंचाने वाली है, अतएव जिनको यह चौथी सोढ़ी प्राप्त है वे ही कर्मों को दाधकर केवलज्ञानी हो जाते हैं।
अयात्मज्ञानशून्यस्य सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां योगपद्यमप्यकिचित्करमित्यनुशास्ति
परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो । विज्जदि जदि सो सिद्धि ण लहदि सब्वागमधरो वि ॥२३६॥
परमाणप्रमाणं वा मूळ देहादिकेषु यस्य पुनः ।
विद्यते यदि स सिद्धि न लभते सर्वागमधरोऽपि ॥२३॥ यदि करतलामलकीकृतसकलागमसारतया भूतभवद्भावि च स्वोचितपर्यायविशिष्टमशेषद्रव्यजातं जानन्तमात्मानं जानन् श्रद्दधानः संयमयंश्नाग मानतत्त्वार्थभवानसंयतस्वानां योगपद्येऽपि मनाङ्मोहमलोपलिप्तत्वात् यदा शरीराविमूछोपरक्ततया निरुपरागोपयोगपरिणतं कृत्वा ज्ञानात्मानमात्मानं नानुभवति तदा तावन्मात्रमोहमलकलङ्कको लिकाकोलितः कर्मभिरविमुच्यमानो न सिद्धयति । अत आत्मज्ञानशून्यमागमज्ञानतत्त्वार्यश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यमप्यकिंचित्करमेव ॥२३६॥
भूमिका-अब यह उपदेश करते हैं कि-आत्मज्ञान शून्य के (वीतरागनिर्विकल्पसमाधि-रहित के) सर्व आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान तथा संयतत्व को युगपत्ता भी अकिचित्कर है, अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकती