Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 600
________________ ५७२ ] [ पवयणसारो तत्त्रयाधारेणोत्पन्न सिद्धजीवविषये सम्यकपरिज्ञानं श्रद्धानं तद्गुणस्मरणानुकूलमनुष्ठान चेति त्रयं तत्त्रयाधारेणोत्पन्न विषदाखण्डेकज्ञानाकारे स्व शुद्धात्मनि परिच्छित्तिरूपं सविकल्पज्ञानं स्वशुद्धात्मोपादेयभूतरुत्रिविकल्परूपं सम्यग्दर्शनम् तवात्मनि रागादिविकल्प निवृत्तिरूपं सविकल्पचारित्रमिति त्रयम् । तत्त्रयप्रसादेनोत्पन्नं . यन्निविकल्पसमाधिरूपं निश्चयरत्नत्रयलक्षणं विशिष्टस्वसंवेदनज्ञानं तदभावादज्ञानी जीवो बहुभवकोटिभिर्यत्कर्म क्षपयति तत्कर्म जानी जीव: पूर्वोक्तज्ञानगुणसद्भावात् त्रिगुप्तिगुप्तः सन्नुच्छ्वासमात्रेण लीलयव क्षपयतीति । ततो ज्ञायते परमागमज्ञानतत्वार्थश्रद्धानसंयतस्वानां भेदरत्नत्रयरूपाणां सद्भावेऽस्यभेदरत्नत्रयरूपस्य स्वसंवेदनज्ञानस्यैव प्रधानत्वमिति ॥२३॥ उत्थानिका--आगे कहते हैं कि परमागमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान तथा संयमीपना इन भेदरूप रत्नत्रयों के मिलाप होने पर भी जो अभेदरत्नत्रय स्वरूप निविकल्पसमाधिमय आत्मज्ञान है वही निश्चय से मोक्ष का कारण है __ अन्वय सहित विशेषार्थ-(अण्णाणी) अज्ञानी (जं कम्म) जिस कर्म को (भवसयसहस्सकोडोहिं) एक लाख करोड भवों में) (खवेइ) नाश करता है। (त) उस कर्म को (णाणी) आत्मज्ञानी (तिहिंगुत्तो) मन वचनकाय तोनों को गुप्ति सहित होकर (उस्सासमेत्तण) एक उच्छ्वास मात्र में (खवेइ) क्षय कर देता है। निर्विकल्प समाधि रूप निश्चय रत्नत्रयमय विशेष अवज्ञान को न पाकर अज्ञानी जीव करोड़ों जन्मों में जिस कर्मबन्ध को क्षय करता है उस कर्म को ज्ञानी जीव तीन गुप्ति में गुप्त होकर एक उच्छवास में नाश कर डालता है। इसका भाव यह है कि बाहरी पदाथों के सम्बन्ध में जो सम्यग्ज्ञान परमागम के अभ्यास के बल से होता है तथा जो उनका श्रद्धान होता है और श्रद्धान ज्ञानपूर्वक व्रत आदि का चारित्र पाला जाता है, इन तीन रूप रत्नत्रय के आधार से सिद्ध परमात्मा के स्वरूप में सम्यक् श्रद्धान तथा सम्यग्ज्ञान होकर उनके गुणों का स्मरण करना इसी के अनुकूल जो चारित्र होता है। फिर भी इसी प्रकार इन तीन के आधार से जो उत्पन्न होता है। निर्मल अखंड एक जानाकार रूप अपने ही शुद्धात्मा में जानने रूप सविकल्पज्ञान तथा "शुद्धात्मा ही ग्रहण करने योग्य है" ऐसी रुचि सो विकल्परूप सम्यग्दर्शन और इसी ही आत्मा के स्वरूप में रागादि विकल्पों से रहित सो सविकल्प चारित्र उत्पन्न होता है फिर भी इन तीनों के प्रसाद से विकल्प-रहित समाधि रूप निश्चय रत्नत्रयमय विशेष स्वसंवेदन ज्ञान उत्पन्न होता है। उस ज्ञान को न पाकर अज्ञानी जीव करोड़ों जन्मों में जिस कर्म का क्षय करता है उस कर्म को ज्ञानी जोष पूर्वोक्त ज्ञान गुण के सद्भाव में मन वचनकाय की गुप्ति में लवलीन होकर एक श्वास मात्र में लीला मात्र से हो नाश कर डालता है। इससे यह बात जानी जाती है कि परमागमज्ञान, तत्वार्थ

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