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[ पवयणसारो ग्लानेन सयमस्य शुद्धात्मतत्त्वसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिककंशमाचरणमाचरता शरीरस्थ शुद्धात्मतत्त्वसाधनभूतसंयमसाधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात् तथा बालवृद्धश्रान्तग्लानस्य स्वस्य योग्यं मनुष्याचरणमाचरणीयमित्यापवावसापेक्ष उत्सर्गः। बालबद्धधान्तग्लानेन शरीरस्य शुद्धात्मतत्वसाधनभूतसंयमसामनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा बालवृद्धश्रान्तग्लानस्य स्वस्य योग्यं महाचरणमाचरता संयमस्य शुद्धात्मतत्वसाधनत्वेन मलमूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमप्याचरणमाचरगीयमित्युत्सर्गसापेक्षोऽपवादः । अतः सर्वथोत्सर्गापवादमैच्या सौस्थित्यमाचरणस्य विधयम् ॥२३०॥
भूमिका--अब उत्सर्ग और अपवाद को मंत्री द्वारा आचरण की सुस्थितता का उपदेश करते हैं
अन्वयार्थ- [बाल; वा] बाल [वृद्धः वा] वृद्ध [श्रमाभिहतः वा] श्रांत' [पुनः ग्लानः वा) या ग्लान' श्रमण [मूलच्छेद :] मूल का छेद [यथा न भवति] जैसे न हो उस प्रकार से [स्वयोग्यां] अपने योग्य [चर्या चरतु] आचरण करे ।
टीका-बाल, वृद्ध, श्रमित (थका हुआ) या ग्लान रोगी मुनि को भी संयम का जो कि शुद्धात्मतत्व का साधन होने से मूलभूत है, छेद जैसे न हो उस प्रकार संपत अपने योग्य अति कर्कश (कठोर) आचरण ही आचरना, इस प्रकार उत्सर्ग है ।
बाल, वृद्ध, अमित या ग्लान मुनि को शरीर का जो कि शुद्धात्मतत्व के साधनभूत संयम का साधन होने से मूलभूत है उसका--छेद जैसे न हो उस प्रकार से बालवृद्धश्रांतग्लान के द्वारा अपने योग्य मद्ध आचरण ही आचरना, इस प्रकार अपवाद है । बाल-वृद्धांतग्लान के, संयम का जो कि शुद्धात्मतत्व का साधन होने से मूलभूत है, छेद जैसे न हो उस प्रकार का संयत ऐसा अपने योग्य अति कठोर आचरण आचरते हुये, शरीर का जो शुद्धात्मतत्व के साधनभूत संयम का साधन होने से भी मलभूत है, छेद जैसे न हो उस प्रकार बालवृद्ध-श्रान्त-ग्लान को अपने योग्य मदु आधरण भी आघरना चाहिए। इस प्रकार अपवादसापेक्ष उत्सर्ग है । बाल-वृद्ध-श्रांत-ग्लान को शरीर का, जो कि शुद्धात्मतत्व के साधनभूत संयम का साधन होने से मूलभूत है, छेद जैसे न हो उस प्रकार से बाल-वृद्ध-श्रान्त-ग्लान ऐसे अपने योग्य मृदु आचरण आचरते हुये, संयम का, जो कि शुद्धात्मतत्व का साधन होने से मूलभूत है,
१. श्रान्त-अमित, थका हुआ।
२. ग्लान- व्याधिग्रस्त, रोगी, दुर्वत ।