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पक्यणसारो ]
[ ५५७ तात्पर्यवृत्ति तद्यथा-अथैकाग्रयगत: श्रमणो भवति । तच्चकाग्रघमागमपरिज्ञानादेव भवतीति प्रकाशयति--
एयग्गगदो समणो ऐकामयगत: श्रमणो भवति । अत्रायमर्थ:-जगत्त्रयकालत्रयतिसमस्तद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमल केवलज्ञानलक्षणनिजपरमात्मतत्त्वसम्बकाश्रद्धानज्ञाना - नुष्ठानरूपमैकाग्रयं भण्यते । तत्र गतस्तन्मयत्वेन परिणतः श्रमणो भवति । एयगं णिछिदस्स ऐकाग्रथं पुननिश्चितस्य तपोधनस्य भवति । केषु ? अत्थेसु टात्कोर्णशायकस्बभावो थोऽसी परमात्मपदार्थस्तत्प्रतिवर्थेषु णिच्छित्ती आगमबो सा च पदार्थनिश्चिति रागमतो भवति । तथाहि-जीवभेदकम
दकागमाभ्यासाद्भवति न केवलमागमाभ्यासात्तथैवागमपदे सारभूताच्चिदानन्दकपरमात्मतत्त्व प्रकाशकादध्यात्माभिधानात्परमागमाच्च पदार्थपरिच्छित्तिभवति आगम चेष्ठा तदो जेठा ततः कारणादेवमुक्तलक्षणागमपरमागमे च चेष्टा प्रवृत्तिः ज्येष्ठा प्रशस्येत्यर्थः ॥२३२।।
उत्थानिका—आगे कहते हैं कि जो अपने स्वरूप में एकाग्र है वही श्रमण है तथा वह एकाग्रता आगम के ज्ञान से ही होती है।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(एयागगयो) जो रलय को तन्मयता को प्राप्त है वह (समणो) साधु है। (अत्येसुणिच्छिवस्स) जिसके पदार्थों में श्रद्धा है उसके (एयरगं) एकाग्रता होती है। (आगमदो णिच्छित्ती) पदार्थों का निश्चय आगम से होता है (तदो) इसलिये (आगमचेट्ठा) शास्त्रज्ञान में उद्यम करना (जेठा) उत्तम है या प्रधान है। तीन जगत् तीन कालवर्ती सब द्रव्यों के गुण और पर्यायों को एक काल जानने को समर्थ सर्व तरह से निर्मल केवलजान लक्षण के धारी अपने परमात्मतत्व के सम्यक श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र से तन्मयता को एकाग्रता कहते हैं । उस सन्मयता को जो प्राप्त हुआ है, सो श्रमण है। वह एकाग्रता निश्चय से साधु के होती है। टांकी में उकेरे के समान ज्ञाता दृष्टा एक स्वभाव का धारी ओ परमात्मा पदार्थ है उसको आदि लेकर सर्व पदार्थों का निश्चय करने वाला जो साधु है उसी के एकाग्रता होती है। तथा इन जीवादि पदार्थों का निश्चय आगम के द्वारा होता है । अर्थात जिस आगम में जीवों के भेद तथा कर्मों के भेदादि का कथन हो उसी आगम के अभ्यास से पदार्थों का निश्चय होता है। केवल पढ़ने का ही अभ्यास न करे किन्तु आगमों में सारभूत जो चिदानंदरूप एक परमात्व तत्व का प्रकाशक अध्यात्म ग्रन्थ है व जिसके अभ्यास से पदार्थ का यथार्थ ज्ञान होता है, उसका मनन करे । इस कारण से ही उस ऊपर कहे गए आमम तथा परमागम में जो उद्योग है वह श्रेष्ठ है । ऐसा अर्थ है ॥२३२॥