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पवयणसारी ]
[ ५५६ बहाने वाले (पंच परिवर्तन करने वाले) महामोहमल से मलीन है वह, धतूरा पिये हुए मनुष्य की भांति विवेक के नाश को प्राप्त होने से अविविक्त ज्ञानज्योति से यद्यपि देखता है तथापि उसे स्व-पर-निश्चायक आगमोपदेश-पूर्वक स्वानुभघ के अभाव के कारण, आत्मा में और आत्मप्रदेश में स्थित शरीरादि द्रव्यों में तथा उपयोगमिश्रित मोहरागद्वेषावि भावों में 'यह पर है और यह आत्मा है ऐसा ज्ञान सिद्ध नहीं होता तथा उसे, परमात्मनिश्चायक आगमोपदेश-पूर्थक स्वानुभव के अभाव के कारण, जिसके त्रिकाल परिपाटी में विचित्र पर्यायों का समूह प्रगट होता है ऐसे अगाध गम्भीर स्वभाव वाले विश्व को ज्ञेयरूप करके प्रतापवान् ज्ञानस्थभावी एक परमात्मा का ज्ञान भी सिद्ध नहीं होता । इस प्रकार जो (१) परात्मज्ञान से तथा (२) परमात्मज्ञाम से शून्य है उसे, (१) द्रव्यकर्म से होने वाले शरीरादि के साथ तथा तत्संबंधी मोहरागद्वेषावि भावों के साथ एकता का अनुभव करने के कारण यध्यघातक (द्रव्यकर्म) के विभाग का अभाव होने से मोहादि द्रव्य-भाव कर्मों का क्षय सिद्ध नहीं होता तथा (२) ज्ञेयनिष्ठता से प्रत्येक वस्तु के प्रति उत्पाद विनाश रूप परिणमित करने के कारण अनादि संसार से परिवर्तन को पाने वाली जो ज्ञप्ति, उसका परिवर्तन परमात्मनिष्ठता के अतिरिक्त अनिवार्य होने से, जति परिवर्तनरूप कार्य का क्षय भी सिद्ध नहीं होता। इसलिये कर्मक्षयार्थियों को सर्वप्रकार से आगम की पर्यपासना करना योग्य है।
तात्पर्यवृत्ति अथागमपरिज्ञानहीनस्य कर्मक्षपणं न भवतीति प्ररूपयति :
आगमहीणो समणो णेवप्पाणं परं वियाणादि आगमहीनः श्रमणो नैवात्मानं परं वा विजानाति अविजाणंतो अछे अविजाननान्परमात्मादिपदार्थान् खवेदि कम्माणि किह भिक्खू क्षपयति कर्माणि कथं भिक्षन कथमपि इति । इतो विस्तरः- गृणजीयापज्जत्तो पाणा सा य मगणाओ य । उवओगोवि य कमलो वीसं तु परूषणा भणिदा इति माथाकथिताद्यागममजानन् तथैव "भिण्णउ जेण ण जाणियउ णियदेहहंपरमत्थु । सो अंधउ अवरह अंधयह किम वरिसावइ पंथु ।" इति दोहकसूत्रकथिताद्यागमपदसारभूतमध्यात्मशास्त्रं चाजानन् पुरुषो रागादिदोषरहिताच्यावाधसुखादिगुणस्वरूपनिजात्मन्यस्य भावकर्मशब्दाभिधेयः रागादिनानाबिकल्पजालनिश्चयेन कर्मभिः सह भेदं न जानाति तथैव कारिविध्वंसकस्वकीयपरमात्मतत्त्वस्य ज्ञानाबरणादिव्यकर्मभिरपि सह पृथक्त्वं न वेति । तथा चाशरीरलक्षणशुद्धात्मपदार्थस्व शरीरादिनोकर्मकर्मभिः सहान्यत्वं न जानाति । इत्थंभूतभेदज्ञानाभाबादेहस्थमपि निजशुद्धात्मानं न रोचते। समस्तरागादिपरिहारेण न च भावयति । ततश्च कधं कर्मक्षयो भवति ? न कथमपीति । ततः कारणान्मोक्षार्थिना परमागमाभ्यास एवं कर्तव्य इति तात्पर्यार्थः ।।२३३॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जिसको आगम ज्ञान नहीं हैं उसके कर्मों का क्षय नहीं हो सकता है।
अन्वय सहित विशेषार्थ---(आगमहीणो) शास्त्र के ज्ञान से रहित (समणो) साधु