________________
:
पवयणसारो |
इत्येवं चरणं पुराणपुरुषजुष्टं विशिष्टावरेरुत्सर्गापवादतश्च विचरबह्वीः पृथग्भूमिकाः । आक्रम्य करतो विवृद्धिमा यतिः सर्वतश्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थिति ॥१५॥
1
५५१
--- इत्याचरणप्रज्ञापनं समाप्तम् ।
भूमिका - अब, उत्सर्ग और अपवाद के विरोध ( अमंत्री) से आचरण की स्थिति नहीं होती है, वह उपदेश करते हैं
अन्वयार्थ – [ यदि ] यदि [ श्रमणः ] श्रमण [ आहारे वा विहारे] आहार या विहार मैं [देशं ] देश, [ कालं ] काल, [ श्रमं ] श्रम, [ क्षमां ] क्षमता तथा [ उपधि ] उपधि, [तान् ज्ञावा ] इनको जानकर [वर्तते ] प्रवर्ते [सः अल्पलेपः ] तो वह थोड़े कर्मों से बंधता है । टीका - क्षमता तथा ग्लानता का हेतु उपवास है और बाल तथा बुढ़ापा उपधिरूप शरीर के आश्रित हैं। इसलिये यहाँ बाल वृद्ध श्रान्त-ग्लान ही लिये
गये हैं ।
अनुरोध से (कारण से ) अल्प लेप होता ही है,
देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल वृद्ध श्रान्त-ग्लानत्य के आहार-विहार में प्रवृत्ति करे तो मृदु आचरण में प्रवृत्त होने से अर्थात् लेप का सर्वथा अभाव नहीं होता, इसलिये उत्सर्ग अच्छा है ।
देशकालज्ञ को मी, यदि वह बाल वृद्ध श्रान्त-ग्लानत्व के अनुरोध से आहार-विहार में प्रवृत्ति करे तो मृदु आचरण में प्रवृत्त होने से अल्प ही लेप होता है । अर्थात् विशेष लेप नहीं होता, इसलिये अपवाद अच्छा है ।
देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल-वृद्ध श्रान्त-ग्लानत्व के अनुरोध से (कारण) जो आहार विहार है, उससे होने वाले अल्पलेप के भय से उसमें प्रवृत्ति न करे तो अर्थात् अपवाद के आश्रय से होने वाले अल्पबंध के भय से उत्सर्ग का हठ करके अपवाद में प्रवृत्त न हो तो अतिकर्कश आचरणरूप होकर अक्रम से शरीरपात करके देवलोक प्राप्त करके जिसने समस्त संयमामृत का समूह वमन कर डाला है उसे तप का अवकाश न रहने से, जिसका प्रतिकार अशक्य है ऐसा महान् लेप होता है, इसलिये अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग श्रेयस्कर नहीं है ।
देशकालज्ञ को भी, यदि वह बाल वृद्ध श्रांत ग्लानत्व के अनुरोध से जो आहारबिहार है, उससे होने वाले अल्पलेपको न गिनकर उसमें यथेष्ट प्रवृत्ति करे तो अर्थात् अपवाद से होने वाले अल्पबन्ध के प्रति असावधान होकर उत्सर्ग रूप ध्येय को चूककर