Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 580
________________ ५५२ । [ पवयणसारो अपवाद में स्वच्छन्दतया प्रवृत्ति करे तो मृदु आचरण रूप होकर संयम विरोधी कोअसंयतजन के समान हुए उसको-उस समय सप का अवकाश न रहने से, जिसका प्रतिकार अशक्य है ऐसा महान लेप होता है । इसलिये उत्सर्ग-निरपेक्ष अपवाद श्रेयस्कर नहीं है। ___इससे उत्सर्ग और अपवाव के विरोध से होने वाले आचरण को दुःस्थितता सर्वथा निषेध्य (त्याज्य) है, और इसीलिये परस्पर-सापेक्ष उत्सर्ग और अपवाद से जिसका कार्य प्रगट होता है, ऐसा स्याद्वाद सर्वथा अनुसरण करने योग्य है ॥२३१॥ अब श्लोक द्वारा आत्मद्रव्य में स्थिर होने की बात कहकर 'आचरण प्रज्ञापन' पूर्ण किया जाता है। अर्थ—इस प्रकार विशेष आवर-पूर्षक पुराण पुरुषों के द्वारा सेवित, उत्सर्ग और अपवार द्वारा अनेक पृथक्-पृथक भूमिकाओं में विचरण करने वाले यति चारित्र को प्राप्त करके, क्रमश: अतुल निवृत्ति करके सामान्य विशेष रूप चतन्य जिसका प्रकाश है ऐसे निज द्रव्य में सर्वतः स्थिति करें। इस प्रकार 'आचरण प्रज्ञापन' समाप्त हुआ। तात्पर्यवृत्ति अथापबादनिरपेक्षमुत्सर्ग तथबोत्सर्गनिरपेक्षमपवादं च निषेधयश्चारित्ररक्षणाय व्यतिरेकद्वारेण तमेवार्थ दृढयति : यवि वर्तते । स कः कर्ता ? समणो यात्रु मित्रादिसमचित्तः श्रमणः यदि । किम् ? जदि अप्प. लेवी सो यदि चेदल्पलेपी स्तोकसावधो भवति । कयोविषययोवर्तते ? आहारे या विहारे तपोधना योग्याहारविहारयोः । किं कृत्वा ? पूर्वं ते जाणिता ते ज्ञात्वा । कान् कर्मतापन्नान् ? वेसं कातं समं खमं उपधि देशं कालं मार्गादिश्रम क्षम क्षमतामुपवासादिविषये शक्ति उपधि बालवृद्धधान्तग्लानसम्बन्धिनं शरीरमात्रोपधि परिग्रहमिति पंच देशादीन् तपोधनाचरणसहकारिभूतानिति । तथाहि-पूर्वकथितक्रमेण तावदुर्द्धरानुष्ठानरूपोत्सर्गे वर्तते । तत्र च प्रासुकाहारादिग्रहणनिमित्तमल्पलेपं दृष्ट्वा यदि न प्रवर्नते तदा आर्तध्यानसंक्लेशेन शरीरत्यागं कृत्वा पूर्वकृतपुण्येन देवलोके समुत्पद्यते । तत्र संयमाभावान्महान् लेपो भवति । ततः कारणादपवादनिरपेक्षमुत्सर्ग त्यजति । शुद्धात्मभावनासाधकमल्पलेपं बहुलाभमपवादसापेक्षमुत्सर्ग स्वीकरोति तथैव च पूर्वसूत्रोक्तक्रमेणापहृतसंयमशब्दवाच्येऽपवादे प्रवर्तते तत्र च प्रवर्त्तमानः सन् यदि कथंचिदीपधपथ्यादिसावधाभयेन व्याधिव्यथादिप्रतीकारमकृत्वा शुद्धात्मभावनां न करोति तहि महान लेपो भवति । अथवा प्रतीकारे प्रवर्तमानोऽपि हरीतकीच्याजेन गुडभक्षणवदिन्द्रियसुखलाम्पयन संयमविराधनां करोति तदापि महान् लेपो भवति । ततः कारणादुत्सर्गनिरपेक्षमपवाद त्यक्त्वा शुद्धात्मभावनारूपं शुभोपयोगरूपं वा संयममविराधयन्नौषधपथ्यादिनिमित्तोत्पन्नाल्पसावद्यमपि बहुगुणराशिमुत्सर्गसापेक्षमपवादं स्वीकरोतीत्यभिप्रायः ॥२३॥ एवं 'उबमरणं जिणमग्गे' इत्याधेकादशगाथाभिरपवादस्य विशेषविवरणरूपेण चतुर्थस्थल

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