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[ पवयणसारो
पालना योग्य आहार में होती है और जो इसके विरुद्ध आहार हो तो वह योग्य आहार न होगा, क्योंकि उसमें द्रव्य-अहिंसा से विलक्षण द्रव्यहिंसा का सद्भाव हो जायेगा ॥२२६।। अथ विशेषेण मांसदूषणं कथयति;--
पक्केसु अ आमेसु अ विपच्चमाणासु मंसपेसीसु। संत्तत्तियमुववादो तज्जादीणं णिगोदाणं ॥२२६-१॥ जो पक्कमपक्कं या पेसी मंसस्स खादि फासदिया।
सो किल णिहणवि पिडं जीयाणमणेगकोडीण ॥२२६-२॥ [जुम्भ] भणित इत्यध्याहारः । स कः ? उववादो व्यवहारनयेनोत्तादः । किविशिष्ट: ? संतत्तियं सान्ततिको निरन्तरः । केषां सम्बन्धी ? णिगोदाणे निश्चयेन शुद्धबुद्धकस्वभावानामनादिनिधनत्वेनोत्पादव्ययरहितानामपि निगोदजीबानाम् । पुनरपि कथंभूतानाम् ? तज्जादीणं तद्वर्णतद्गन्धतद्रसतत्स्पर्शत्वेन तज्जातीनां मांसजातीनाम् । कास्वधिकरणभूतासु ? मंसपेसीसु मांसपेशीषु मांसखण्डेषु । कथंभूतासु ? पक्केसु अ आमेसु अ विपच्चमाणासु पनवामु चामासु च विपच्यमानास्विति प्रथमगाथा । जो पक्कमपक्कं वा यः कर्ता पक्वामपक्वां वा पेसों पेशी खण्डम् । कस्य ? मंसस्स मांसस्य खादि निजशुद्धात्मभावनोत्पन्नसुख सुधाहारमलभमानः सन् खादति भक्षति फासदि वा स्पर्शति वा सो किल णिहदि पिडं स कर्ता किल लोकोक्त्या परमागमोक्त्या वा निहन्ति पिण्डम् । केषाम् ? जीवाणं जीवानाम् । कतिसंख्योपेतानाम् ? अणेगकोडीणं अनेककोटीनामिति । अश्रेदमुक्तं भवति शेषकन्दमुलाद्याहाराः केचनानन्तकाया अप्यग्निपक्वाः सन्तः प्रासुका भवन्ति मांसं पुनरनन्तकायं भवति तथैव चाग्निपक्वमपक्वं पच्यमानं वा प्रासुकं न भवति । तेन कारणेनाभोज्यमभक्षणीयमिति ॥२२६-१, २२६-२।।
उत्थानिका—प्रकरण पाकर आचार्य मांस के दूषण बताते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ--(पक्केसु अ) पके हुए व (आमेसु अ) कच्चे तथा (विपच्चमाणासु) पकते हुए (मंसपेसीसु) मांस के खण्डों में (तज्जादीणं) उस मांस की जाति वाले (णिगोदाणं) निगोद अर्थात् लध्यपर्याप्तक जीवों का (संतत्तियमुववादो) निरन्तर जन्म होता है (ओ) जो कोई (परकं व अपवक मंसस्स पेसी) पक्की, या कच्ची मांस की डली को (खादि) खाता है (वा फासदि) अथवा स्पर्श करता है (सो) वह (मणेगकोडीण) अनेक करोड़ (जीवाणं) जीवों के (पिड) समूह को (किल) निश्चय से (णिहणवि) नाश करता है । मांसपेशी में जो कच्ची, पक्की व पकती हुई हो हर समय उस मांस को रंगत, गंध, रस, स्पर्श के धारी अनेक निगोद जीव-जो निश्चय से अपने शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव के धारी हैं-अनादि व अनंत काल में भी अपने स्वभाव से न उपजते न विनशते हैं, ऐसे जन्तु व्यवहारनय से उत्पन्न होते रहते हैं । जो कोई ऐसे कच्चे या पक्के मांस खण्ड को अपने शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत को न भोगता हुआ