________________
५३४ ]
[ पत्रयणसारो
श्वेताम्बर सप्ततिका नामा छठा कर्म ग्रन्थ गाथा ४७ की टीका में निम्न गाथा आयी है, जिसमें कि स्त्री को चौदहवां पूर्व पढ़ने का निषेध है, सूत्र में कहा हैतुच्छागारवबहुला चलविआ दुम्बला अधोइए ।
इय अवसे सज्जपणा भू अऊडा अनोच्छीणं ॥१॥
अर्थ — भूतवाद अर्थात् वृष्टिवाद नाम का बारहवां अंग स्त्री को नहीं पढ़ना चाहिये क्योंकि स्त्री जाति स्वभाव से तुच्छ ( हल्की ) होतो है, गर्व अधिक करती है, विद्या झेल नहीं सकसी, इन्द्रियों की चंचलता स्त्रियों में विशेष होती है, स्त्री को बुद्धि दुर्बल होती है ।
श्वेताम्बर प्रवचनसारोवार - प्रकरण रत्नाकर भाग तीसरा (सं० १६६४ भोम सेन माणक जी बम्बई ) पृष्ठ ५४४-४५ में है कि स्त्रियों को नीचे लिखी बातें नहीं हो सकती हैं
अरहंत चक्कि केसव बल संभिनेय चारणे पुब्बा ।
गणहर पुलाय आहारगं च न हु भवियमहिलाणं ॥ ५४० ॥
अर्थ - अरहंत, चक्री, नारायण, बलदेव, संभिन्नश्रोता, विद्याचारणादि, पूर्व का ज्ञान, गणधर, पुलाकपना, आहारक शरीर मे वश लब्धियां भव्य स्त्री के नहीं होती हैं ।
श्येताम्बर प्रवचनसारोद्वार प्रकरण रत्नाकर चौथे भाग का षडशीति नामक चतुर्थ कर्म ग्रन्थ पृष्ठ ३६८
चौथे गुणस्थान में स्त्रीवेद के उदय होते हुए औवारिक मिश्र, वैक्रियिकमिश्र, कार्मण ये तोन योग प्रायः नहीं होते हैं । अर्थात् सम्यग्दृष्टि स्त्री पर्याय में नहीं उपजता है ।
इस प्रकार स्त्री निर्वाण निराकरण के व्याख्यान की मुख्यता से ग्यारह गाथाओं के द्वारा तीसरा स्थल पूर्ण हुआ ।
अथ केऽपवाद विशेष इत्युपदिशति
उवयरणं जिणमग्गे लिंग जहजादरूवमिदि भणिदं ।
गुरुवयणं पिय विणओ सुत्तज्झयणं च णिद्दिट्ठ ॥ २२५ ॥ उपकरणं जिनमार्गे लिङ्ग यथाजातरूपमिति भणितम् ।
गुरुवचनमपि च विनयः सूत्राध्ययनं च निर्दिष्टम् ॥ २२५॥
यो हि नामाप्रतिषिद्धोऽस्मिन्नुपधिरपवादः स खलु निखिलोऽपि श्रामण्यपर्याय सहकारिकारणत्वेनोपकारकारकत्वादुपकरणभूत एव न पुनरन्यः । तस्य तु विशेषाः सर्वाहार्यंव