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वयणसारो ]
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वाला साधु उपर्युक्त क्रोधादि पंद्रह प्रमाद से रहित चैतन्य चमत्कार मात्र आत्मतत्व की भावना से गिरा हुआ पन्द्रह प्रकार के प्रमादों के कारण प्रमादी हो जाता है ।।२२६-१॥ अथ युक्ताहारविहार साक्षादनाहारविहार एवेत्युपदिशति-
जस्स असणमप्पा तं पि, तवो तप्पडिच्छगा समणा । अण्णं भिक्खमणे सण मध ते समणा अणाहारा ॥ २२७॥ यस्यानेषण आत्मा तदपि तपः तत्प्रत्येषकाः श्रमणाः ।
अन्य क्षमनेषणमथ ते श्रमणा अनाहाराः || २२७॥
स्वयमनशनस्वभावत्वादेषणादोषशून्य लक्ष्यत्याच्च युक्ताहारः साक्षादनाहार एव स्यात् । तथाहि यस्य सकलकालमेव सकलपुद्गलाह रणशून्यमात्मानमवबुद्धयमानस्य सकलाशनतृष्णा शून्यत्वात्स्वयमनशन एव स्वभावः तदेव तस्यानशनं नाम तपोऽन्तरङ्गस्य बलोयस्त्वात् । इति कृत्वा ये तं स्वयमनशनस्वभावं भावयन्ति श्रमणाः, तत्प्रतिषिद्धये चैषणा दोषशून्यमन्यभैक्षं चरन्ति ते बिलाहरन्तोऽप्यनाहरन्त इव युक्ताहारत्वेन स्वभावपरभावप्रत्यबन्धाभावात्साक्षादनाहारा एव भवन्ति । एवं स्वयमविहारस्वभावत्वात्समितिशुद्धविहारत्वाच्च युक्तविहार: साक्षादविहार एव स्यात् इत्यनुक्तमपि गम्येतेति ॥ २२७॥ भूमिका – अब, युक्ताहारविहारी साक्षात् अनाहारविहारी ही है, ऐसा उपदेश करते हैं
अन्वयार्थ – [ यस्य आत्मा अनेषणः ] जिसका आत्मा भोजन की इच्छा से रहित है [ तत् अपि तपः ] वही तप है ( और ) [ तत्प्रत्येकाः ] उसे प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करने वाले [श्रमणाः ] श्रमणों के [ अन्यत् भैक्षम् ] ( अन्य स्वरूप से रहित ) भिक्षा [ अनेषणम् ] एषणा दोष से रहित होती है, [ अथ ] इसलिये [ते श्रमणाः ] वे श्रमण [ अनाहाराः ] अनाहारी हैं ।
टीका–स्वयं अनशन स्वभाव वाला होने से और एषणादोष शून्य भिक्षा वाला होने से, युक्ताहारी मुनि साक्षात् अनाहारी ही है । यथा-सदा ही समस्त पुद्गलाहार से शून्य आत्मा को जानने वाले के समस्त अशन कृष्णा रहित होने से जिसका स्वयं अनशन ही स्वभाव है, वही अनशन नामक अंतरंग तप है, क्योंकि वह बलवान है। यह समझकर जो श्रमण आत्मा को स्वयं अनशन स्वभाव भाते हैं और उसकी सिद्धि के लिये एषणादोष शून्य ( स्वरूप से पृथक् ) अन्न आदि की भिक्षा आचरते हैं, वे आहार करते हुए भो अनाहारी हैं क्योंकि युक्ताहारित्व के कारण उनके स्वभाव तथा परभाव के निमित्त से बन्ध नहीं होता, इसलिये साक्षात् अनाहारी ही हैं ।