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। पवयणसारो उद्यम से लगाया है इसलिये मुनिपने के नाशक आहारग्रहण के परिणाम का अभाव होने से उसका आहार योगी का आहार है, इसलिये उसके युक्ताहारित्व सिद्ध होता है ॥२२८॥
___ तात्पर्यवृत्ति अथ तदेवानाहारकत्वं प्रकारान्तरेण प्राह;
केवलदेहो केवलदेहोऽन्यपरिग्रहरहितो भवति । स कः कर्ता ? समणो निन्दाप्रशंसादिसमचित्तः श्रमणः । तहि कि देहे ममत्वं भविष्यति ? नवं देहेवि ममत्तरहियपरिकम्मो देहेऽपि ममत्वरहितपरिकर्मा।
"मति परिवजामि णिम्ममति जवविदो । आलंबणं च मे आदा अबसेसाई बोसरे ॥"
इति श्लोककथितक्रमेण देहेऽपि ममत्वरहित: आजुत्तोतं तवसा आयुक्तवान् आयोजितवांस्तं देहं तपसा । किं कृत्वा ? अणिगृहिय अनिगृह्य प्रच्छादनमकृत्वा । काम् ? अप्पणो सत्ति आत्मनः शक्तिमिति । अनेन किमुक्तं भवति-यः कोऽपि देहाच्छेषपरिग्रहं त्यक्त्या देहेऽपि ममत्वरहितस्तथैव तं देह तपसा योजयति स नियमेन युक्ताहारविहारो भवतीति ।।२२८।।
___ उत्थानिका--आगे इसी अनाहारकपने को दूसरी रीति से कहते हैं
___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(समणो) साधु (केवलवेहो) केवल-मात्र शरीरधारी हैं(देहे वि ममेत्ति रहिवपरिकम्मो) देह में भी ममता रहित क्रिया करने वाले हैं। इससे उन्होंने (अप्पणो सत्ति) अपनी शक्ति को (अणिगृहिय) न छिपाकर (तवसा) तप से (तं) उस शरीर को (आउत्तो) योजित किया है अर्थात तप में अपने तन को लगा दिया है। निन्दा, प्रशंसा आदि में समान चित्त के धारी साधु अन्य परिग्रह को त्यागकर केवल-मात्र शरीर के धारी हैं तो भी क्या वे देह में ममता करेंगे, कभी नहीं । वे देह में भी ममता रहित होकर देह की क्रिया करते हैं । साधुओं की यह भावना रहती है, जैसा इस गाथा में है-"मैं ममता को त्यागता हूँ निर्ममत्व भाव में ठहरता हूँ, मेरे को अपना आत्मा हो आलम्बन है और सर्व को मैं त्यागता हूँ।" शरीर से ममता न रखते हुए थे साधु अपने आत्मवीर्य को न छिपाकर इस नाशवंत शरीर को तप साधन में लगा देते हैं । यहाँ यह कहा गया है कि जो कोई देह के सिवाय सर्व वस्त्रादि परिग्रह का त्याग कर शरीर में भी ममत्व नहीं रखता है तथा देह को तप में लगाता है वही नियम से युक्ताहार विहार करने वाला है ।।२२८॥ अथ युक्ताहारस्वरूपं विस्तरेणोपदिशति
एक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्धं । चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ॥२२६॥