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पवयणसारो ]
[ ५३७ हि रहितकषायः ततो न तच्छरीरानुरागेण दिव्यशरीरानुरागेण वाहारविहारयोरयुक्त्या प्रवर्तेत । शुद्धात्मतत्वोपलम्मसाधकश्रामण्यपर्यायपालनायक केवलं युक्ताहारविहारः स्यात् । २२६॥
भूमिका-अब, अनिषिद्ध शरीर मात्र उपधि के पालन की विधि का उपदेश करते
अन्वयार्ष-] श्रमणः] मुनि [रहितकषायः ] कषाय रहित होता हुआ [इहलोक निरपेक्षः] इस लोक में विषयाभिलाषा रहित होता हुआ और [परस्मिन् लोके] परलोक में [अप्रतिबद्धः] देवादि पर्याय की इच्छा नहीं करता हुआ [युक्ताहारविहारः भवेत् ] योग्य आहार विहार में प्रवृत्ति करता है।
टीका-अनाविनिधन एकरूप शुद्ध आत्मतत्व में परिणत होने से श्रमण समस्त कर्म-पुद्गल के विपाक से अत्यन्त विविक्त (भिन्न) स्वभाव के द्वारा कषायरहित होने से, वर्तमान काल में मनुष्यत्व के होते हुये भी स्वयं समस्त मनुष्य व्यवहार से उदासीन होने के कारण इस लोक के प्रति निरपेक्ष (निस्पृह) है, तथा भविष्य में होने वाले देवादि के भोगों की तृष्णा से रहित होने के कारण परलोक के प्रति अप्रतिबद्ध (वांछा से रहित) है, इसलिये, जैसे घटपटादि पदार्थों को देखने के लिये ही दीपक में तेल डाला जाता है और बत्ती आदि ठीक करते हैं; उसी प्रकार श्रमण शुद्धात्मा को प्राप्त करने के लिये ही उस शरीर को खिलाता और चलाता है, इसलिये युक्ताहार विहारी होता है।
यहां तात्पर्य यह है कि-श्रमण कषाय रहित है, इसलिये वह वर्तमान मनुष्य शरीर के अनुराग से या दिव्यशरीर के अर्थात् भावी देवशरीर के अनुराग से आहार विहार में अयुक्त रूप से प्रवृत्ति नहीं करता किन्तु शुद्धात्मतत्व की प्राप्ति के साधनभूत श्रामण्यपर्याय के पालन के लिये ही मात्र योग्य आहार विहार में प्रवृत्ति करता है ।
तात्पर्यवृत्ति अथ युक्ताहारविहारलक्षणतपोधनस्य स्वरूपमाख्याति; --
इहलोगणिरावेक्खो इलोकनिरापेक्षः टोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावनिजात्मसंवित्तिविनाशकख्यातिपूजालाभरूपेहलोककांक्षारहितः अपडिबद्धो परम्हि लोयमिह अप्रतिवद्धः परस्मिन् लोके तपश्चरणे कृने दिव्यदेबस्त्रीपरिबारादिभोगा भवन्तीति, एवंविधपरलोके प्रतिबद्धो न भवति जुत्ताहारविहारो हवे युक्ताहारविहारो भवेत् । स कः ? समणो श्रमणः । पुनरपि कथंभूतः ? रहिवकसाओ नि:कषायस्वरूपसंवित्त्यवष्टंभवलेन रहितकषायश्चेति । अयमत्र भावार्थ:-योऽसौ इहलोकपरलोकनिरपेक्षत्वेन निःकषायत्वेन च प्रदीपस्थानीयशरीरे तैलस्थानीय प्रासमात्रं दत्वा घटपटादिप्रकाश्यपदार्थस्थानीय निजपरमात्मपदार्थमेव निरीक्षते स एव युक्ताहारविहारा भवति न पुनरन्यः शरीरपोषणनिरत इति ॥२२६।।।