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पवयणसारो ] वित्वप्रसिद्धचदैकान्तिकाशुद्धोपयोगसद्धावस्यकान्तिकबन्धत्वेन छ वत्वमैकान्तिकमेव । अत एव भगवन्तोऽर्हन्तः परमाः श्रमणाः स्वयमेव प्रागेव सर्वमेवोपधिं प्रतिषिद्धवन्तः। अत एव चापरैरप्यन्तरङ्गच्छ दवत्तवनान्तरीयकत्वात्प्रागेव सर्व एवोपधिः प्रतिषेध्यः ॥२१६॥
वक्तव्यमेव किल यत्तदशेषमुक्तमेतावतंव यदि चेतयतेऽत्र कोऽपि । व्यामोहजालमतिदुस्तरमेव नूनं निश्चेतनस्य वचसा मति विस्तरेऽपि ॥१४॥ [वसन्ततिलका]
भूमिका-परिग्रह ऐकान्तिक अन्तरंग-छेद होने से यह परिग्रह अन्तरंगछेद के समान त्याज्य है, यह उपदेश करते है
__ अन्वयार्थ-[कायचष्टायाम्] कायचेष्टापूर्वक [जीवे मृते] जीव के मरने पर |बन्धः ] बंध [भवति] होता है, [चा] अथवा [न भवति ] नहीं भी होता, किन्तु [उपध:] उपधिसे-परिग्रह से [ध्र वम् बंधः] निश्चय ही बंध होता है, [इति] इसलिये [श्रमणाः] श्रमणों [अर्हन्तदेवों] ने [सर्व] सर्वपरिग्रह [त्यक्तवन्तः] छोड़ा है।
टीका-जैसे कायव्यापारपूर्वक परप्राणव्यपरोप को अशुद्धोपयोग के सदभाव और असद्भाव के द्वारा अनेकांतिक बंध का अनियम होने से छेद का अनियम माना गया है, वैसा परिग्रह के द्वारा बंध का ऑनयम नहीं है। परिग्रह सर्वथा अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होता, ऐसा जो परिग्रह का सर्वथा अशुनोपयोग के साथ अविनाभाविपना है उससे प्रसिद्ध होने वाले निश्चित अशुद्धोपयोग के सद्भाव के कारण परिग्रह से तो बंध निश्चित है, इसलिये उस परिग्रह को छेद का नियम ही है, इसीलिये भगवन्त अहंन्तों ने, परम श्रमणों ने स्वयं ही पहले ही सभी परिग्रह को छोड़ा है, और इसीलिये दूसरों के द्वारा भी, अन्तरल छेद की भांति प्रथम ही सभी परिग्रह छोड़ने का उपदेश दिया, सो योग्य है, क्योंकि वह परिग्रह अन्तरङ्गछेद के बिना नहीं होता ॥२१॥
[अब, 'कहने योग्य सब कहा गया है' इत्यादि कथन श्लोक द्वारा किया जाता है।
[अर्थ-] जो कहने योग्य था वह सम्पूर्णतया कह दिया गया है, इतने मात्र से हो यदि यहां कोई चेत जाय तो समझ ले (अन्यथा) वाणी का अतिविस्तार किया जाय तो मी निश्चेतन अर्थात् नासमझ को व्यामोह का जाल बास्तव में अति दुस्तर है।
तात्पर्यवृत्ति अथ बहिरङ्गजीवघाते बन्धो भवति न भवति वा परिग्रहे सति नियमेव भवतीति प्रतिपादयति
हदि व ण हवदि बंधो भवति वा न भवति बन्धः कस्मिन्सति मदम्हि जीवे मृते सत्यन्यजीवे । अथ अहो । कस्या सत्याम् ? कायचेम्हि कायचेष्टायाम् । तहि कथं बन्धो भवति । बंधो धुक्मुवधीदो बन्धो भवति ध्रुवं निश्चितं । कस्माद् ? उपथेः परिग्रहात्सकाशादिति हेतोः समणा इंडिया सवं श्रमणा