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[ पवयणसारो
प्रतिबन्धक आरम्भो वा कथं नास्ति किन्त्वस्त्येव असंजमो तस्स शुद्धात्मानुभूति विलक्षण संयमो वा कथं नास्ति किन्त्वस्त्येव तस्य सपरिग्रहस्य वह परवव्वम्मि रदो तथैव निजात्मद्रव्यात्परद्रव्ये रतः कमपणं पसादि स तु सपरिग्रहपुरुषः कथमात्मानं प्रसाधयति ? न कथमपीति ॥ २२९॥
एवं श्वेताम्ब रमतानुसारिशिष्यसम्बोधनार्थं निर्ग्रन्थमोक्षमार्गस्थापनमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथापंचकं गतम् ।
उत्थानिका- आगे आचार्य कहते हैं कि जो परिग्रहवान् है उसके नियम से चित्त की शुद्धि नष्ट हो जाती है
अन्वय सहित विशेषार्थ - - ( तम्हि ) उस परिग्रह सहित साधु में (हि) किस तरह ( मुच्छा) परद्रव्य की ममता से रहित चैतन्य के चमत्कार की परिणति से भिन्न मूर्छा ( वा आरंभो ) अथवा मन वचन काय की क्रिया रहित परम चैतन्य के भाव में विघ्नकारक आरम्भ ( णत्थि ) नहीं है किन्तु है हो ( तस्स असंजमो ) और उस परिग्रहवान् के शुद्धात्मा के अनुभव से विलक्षण असंयम भी किस तरह नहीं है किन्तु अवश्य है ( तध ) तथा (परदव्वम्मि रक्षा ) अपने आत्मद्रव्य से भिन्न परद्रव्य में लीन होता हुआ (कधमप्पाणं पसायदि) किस तरह अपने आत्मा की साधना परिग्रहवान् पुरुष कर सकता है अर्थात् किसी भी तरह नहीं कर सकता है ।। २२१ ॥
इस तरह श्वेताम्बर मत के अनुसार मानने वाले शिष्य के सम्बोधन के लिये निर्ग्रथ मोक्षमार्ग के स्थापन की मुख्यता से पहले स्थल में पांच गाथायें पूर्ण हुई । अय कस्यचित् चित्कदाचित्कथंचित्कश्चिदुपधिरप्रतिषिद्धोऽप्यस्तीत्यपवादमुपविशतिछेदो जेण ण विज्जदि गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स ।
समणो तेहि वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता ॥२२२॥ छेदो येन न विद्यते ग्रहण विसर्गेषु सेवमानस्य ।
श्रमणस्तेनेह वर्ततां कालं क्षेत्रं विज्ञाय ॥। २२२||
आत्मद्रव्यस्य द्वितीयपुद्गलद्रव्याभावात्सर्वं एवोपधिः प्रतिषिद्ध इत्युत्सर्गः । अयं तु विशिष्ट कालक्षेत्र वशात्कश्चिदप्रतिषिद्ध इत्यपवादः । यदा हि श्रमणः सर्वोपधिप्रतिषेधमास्थाय परममुपेक्षासंयमं प्रतिपत्तुकामोऽपि विशिष्ट कालक्षेत्र वशावसन्नशक्ति प्रतिपत्तुं क्षमते तदाकृष्य संयमं प्रतिपद्यमानस्तदृहिरङ्गसाधनमात्रमुपधिमातिष्ठते । स तु तथा स्थीयमानो न खलूपधित्वाच्छेदः प्रत्युत छ ेदप्रतिषेध एव । यः किलाशुद्धोपयोगाविनाभावी स छ ेवः अयं तु श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणणशरीरवृत्तहेतुभूताहारनिरादिग्रहणविसर्जनविषयच्छदप्रतिषेधार्थमुपादीयमानः सर्वथा शुद्धोपयोगाविनाभूतत्वाच्छ ेद एव प्रतिषेध एव स्यात् ॥ २२२ ॥