________________
सारो]
[ ५३१
त्यादि । इस दृष्टान्त में अग्नि का मात्र दृष्टान्त है, देवदत्त साक्षात् अग्नि नहीं। इसी स्त्रियों के महाव्रत जैसा आचरण है, महाव्रत नहीं, क्योंकि मुख्य का अभाव होने पर प्रयोजन तथा निमित्त के वश उपचार प्रवर्तता है, ऐसा आर्ष वाक्य है ।
र को स्त्री कहा है सो ठीक नहीं है। निशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं को
यदि स्त्रियों को तद्भव मोक्ष हो सकता हो तो सौ वर्ष को दीक्षित आर्यिका आज हो मा लेने वाले साधु को क्यों वंदना करती है ? चाहिये तो यह था कि पहले यह नया ति साधु हो उसको बन्दना करता, सो ऐसा नहीं है । तथा आपके मत में मल्लि तीर्थंकर वे ही होते हैं जो पूर्व भव में दर्शनभा करके तीर्थंकर नामकर्म बांधते हैं । जीव के स्त्रीवेद कर्म का बन्ध ही नहीं होता है फिर सम्यग्दृष्टि किस तरह पर्याय में पैदा होगा। तथा यदि ऐसा माना जायेगा कि मल्लि तीर्थंकर व अन्य कोई स्त्री होकर फिर निर्वाण को गए तो स्त्री रूप की प्रतिमा की आराधना क्यों नहीं आप लोग करते हैं।
शंका- यदि स्त्रियों में पूर्व लिखित दोष होते हैं तो सीता, रुक्मिणी, कुन्ती, द्रौपदी, महा आदि जिनदीक्षा लेकर विशेष तपश्चरण करके किस तरह सोलहवें स्वर्ग में
समाधान -- उनके स्वर्ग जाने में कोई दोष नहीं है । वे उस स्वर्ग से आकर पुरुष हर मोक्ष जावेंगी, स्त्रियों को तद्भव मोक्ष नहीं है किन्तु अन्य भाव में उस आत्मा को हो, इसमें कोई दोष नहीं है ।
यहां यह तात्पर्य है कि स्वयं वस्तु स्वरूप को हो समझना चाहिये केवल विवाद करना उचित नहीं है, क्योंकि विवाद में राग द्वेष की उत्पत्ति होती है जिस कारण से शुद्ध एल्मा की भावना नष्ट हो जाती है ।।२२४-८॥
अथोपसंहाररूपेण स्थितपक्षं दर्शयति ;
तम्हा सं पडिरूवं लिंगं तासि जिणेहि णिद्दिट्ठ । कुलरुववओजसा समणीओ तस्समाचारा ॥ २२४-६॥
सम्हा यस्मात्तद्भवे मोक्षो नास्ति तस्मात्कारणात् तं पडिरूवं लिंगं तासि जिर्णोहि णिद्दिट्ठ तिरूपं वस्त्रप्रावरणसहितं लिङ्ग चिन्हं लाञ्छनं तासां स्त्रीणां जिनवरैः सर्वज्ञेनिर्दिष्ट कथितम् । भत्ता समणीओ लोकदुगुच्छारहितत्वेन जिनदीक्षायोग्यं कुलं भण्यते । अन्तरङ्गतिविकारबहिरङ्गनिर्विकारं रूपं भण्यते । शरीरभङ्गरहितं वा अतिबालवृद्धबुद्धिवैकल्यरहितं मष्यते । तैः कुलरूपवयोभिर्युक्ताः कुलरूपवयोयुक्ता भवन्ति ? काः श्रमण्याजिकाः । पुनरपि