________________
[ पवयणसारो
स्त्री भूत्वा निर्वाणं गतः तहि स्त्रीरूपप्रतिमाराधना कि न क्रियते भवद्भिः ? यदि पूर्वोक्तदोषाः सन्ति स्त्रीणां तहि सीतारुक्मिणीकुन्तीद्रौपदीसुभद्राप्रभूतयो जिनदीक्षां गृहीत्वा विशिष्टतपश्चरणेन कथं षोडशस्बर्गे गता इति चेत् ? परिहारमाह-तत्र दोषो नास्ति तस्मात्स्वर्गादागत्य पुरुषवेदेन मोक्षं यास्यन्त्यग्रे । तद्भवमोक्षो नास्ति भवान्तरे भवतु को दोष इति । इदमत्र तात्पर्य-स्वयं दस्तुस्वरूपमेव ज्ञातव्यं परं प्रति विवादो न कर्त्तव्यः । कस्मात् ? विवादे रागद्वेषोत्पत्तिर्भवति ततश्च शुद्धात्मभावना नश्यतीति ||
उत्थानिका--आगे और भी निषेध करते हैं कि स्त्रियों के उसी भव से मुक्ति में जाने योग्य सर्व कर्मों की निर्जरा नहीं हो सकती है।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(जदि दंसणेण सुद्धा) यद्यपि कोई स्त्री सम्यग्दर्शनसे शुद्ध हो (सुत्तज्यणेण चावि संजुत्ता) तथा शास्त्र के ज्ञान से भी संयुक्त हो (घोरं चरियं चरदि) और घोर चारित्रको भी आचरण करे (इत्यिस्स णिज्जरा ण भणिया) तो भी स्त्री के सर्व कर्म यी निर्जश नहीं कही गई है । यदि कोई स्त्री शुद्ध सम्यक्त्व की धारी हो व ग्यारह अंग सूत्रों का अध्ययन करने वाली हो, पक्ष का या मास का उपवास आदि घोर चारित्र को आचरण करने वाली हो, तथापि उसकी ऐसी निर्जरा नहीं हो सकती, जिससे स्त्री उसी भध में सर्व कर्म को क्षयकर मोक्ष प्राप्त कर सके। इस कहने का प्रयोजन यह है कि जैसे प्रथम संहनन वनवृषभनाराच के न होने के कारण सातवें नरक नहीं जा सकती तैसे ही वह निर्वाण को भी नहीं प्राप्त कर सकती है।
शंका-जैसे पुरुष वेद के उदय वाले पुरुष क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हो जाते हैं वैसे ही स्त्री व नपुसक वेद के उदय वाले पुरुष भी ध्यान में लीन हो क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर सिद्ध हो जाते हैं-इस गाथा में भाव स्त्रियों को निर्वाण होना क्यों कहा है ? ___ समाधान-भाव स्त्रियों के प्रथम संहनन होता है, द्रव्य-स्त्री वेद नहीं होने से उनके उसी भव में मोक्ष के भावों को रोकने वाला तीव्र काम का वेग भी नहीं होता है। द्रव्य स्त्रियों को प्रथम संहनन नहीं होता है क्योंकि आगम में ऐसा ही कहा है___कर्म भूमि की स्त्रियों के अन्त के तीन संहनन नियम से होते हैं तथा आदि के तीन नहीं होते हैं ऐसा जिनेन्द्रों ने कहा है। ____ शंका-यदि स्त्रियों को मोक्ष नहीं होता है तो आपके मत में किसलिये आथिकाओं को महाव्रतों का आरोपण किया गया है ? ____समाधान—यह उपचार कथन कुल की व्यवस्था के निमित्त कहा है। जो उपचार कथन है वह साक्षात् नहीं होता। जैसे यह कहना कि यह देवदत्त अग्नि के समान क्रूर