Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 556
________________ ५२८] [ पवयणसारो मध्य में एक भी बोष न पाया जाता हो तथा निश्चय से उनका शरीर भी संवृतरूप नहीं है इसलिये उनका शरीर वस्त्र से आच्छादन किया जाता है ॥२२४ -५॥ अथ पुनरपि निर्वाणप्रतिबन्धक दोषान्दर्शयति चित्तस्साको तासि सिथिल्लं अत्तवं च पक्खणं । विज्जदि सहसा तासु अ उप्पावो सुहममणुआ ।।२२४-६ ।। विज्जदि विद्यते तासु तासु च स्त्रीषु किं ? चित्तस्साबो चित्तस्रवः निःकामात्मतत्त्वसंवित्तिविनाशकचित्तस्य कामोद्रेकेण स्रवो रागसार्द्रभाव: तासि तासां स्त्रीणां सिथिल्लं शिथिलस्य भावः शैथिल्यं तद्भवमुक्तियोग्य परिणामविषये चित्तदाढर्याभावः सत्त्वहीनपरिणाम इत्यर्थः । अत्तवं च पक्खलणं ऋतौ भवमार्त्तवं प्रस्खलनं रक्तस्रवणं सहसा झटिति मासे मासे दिनत्रयपर्यन्तं चित्तशुद्धिविनाशको रक्तस्रवो भवतीत्यर्थः उप्पादो सुहममणुआणं उत्पाद उत्पत्तिः सूक्ष्मलन्ध्यपर्याप्तमनुष्याणामिति ॥ ६॥ उत्थानिका और भी स्त्रियों में ऐसे दोष दिखलाते हैं जो उनके निर्वाण होने में बाधक हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तासि ) उन स्त्रियों के (चित्तस्सायो ) चित्त में काम का उद्रेक ( सिथिल्लं) शिथिलपना (सहसा अत्तवं च पक्खवणं) तथा एकाएक ऋतु धर्म में रक्त का बहना (विज्जवि ) मौजूद है ( तासु अ सुहममणअणं उप्पादो) तथा उनके शरीर में सूक्ष्म मनुष्यों की उत्पत्ति होती है। उन स्त्रियों के चित्त में कामवासना रहित आत्मतत्य के अनुभव को विनाश करने वाले काम को तीव्रता से राग से गीले परिणाम होते हैं तथा उसो भव से मुक्ति के योग्य परिणामों में चित्त की दृढ़ता नहीं होती है । बीर्य-हीन शिथिलपना होता है। इसके सिवाय उनके एकाएक प्रत्येक मास में तीन-तीन दिन पर्यंत ऐसा रक्त बहता है जो उनके मन की शुद्धि का नाश करने वाला है तथा उनके शरीर में सूक्ष्म asure मनुष्यों की उत्पत्ति हुआ करती है ॥२२४-६ ॥ -- अयोत्पत्तिस्थानानि कथयति- लिगं हि य इत्योगं थणंतरे णाहिकखपदेसेसु । भणिदो सुहमुप्पादो तासि कह संजमो होदि ॥। २२४-७६ लिंगं हि य इत्यीणं थणंतरे णाहिकखपदेसेसु स्त्रीणां लिङ्ग योनिप्रदेशे स्तनान्तरे नाभिप्रदेशे कक्षप्रदेशे च भणिदो सुहृमुप्पादो एतेषु स्थानेषु सूक्ष्ममनुष्यादिजीवोत्पादो भणितः । एते पूर्वोक्तदोषाः पुरुषाणां किं न भवन्तीति चेत् ? एवं न वक्तव्यं स्त्रीषु बाहुल्येन भवन्ति । नचास्तित्वमात्रेण समानत्वं । एकस्य विषकणिकास्ति द्वितीयस्य च विषं सर्वतोऽस्ति किं समानत्वं भवति ? किन्तु पुरुषाणां प्रथमसंहननवलेन दोषविनाशको मुक्तियोग्य विशेषसंयमोऽस्ति । तासि कह संजमो होदि ततः कारणात्तासां कथं संयमो भवतीति ॥ ७ ॥

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