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पवयणसारो ]
[ ५१६ अर्थकान्तिकान्तरङ्गच्छेवत्वमुपोविस्तरेणोपदिशति'किध तम्हि पत्थि मुच्छा आरम्भो वा असंजमो तस्स । "ता परनलग्नि पदो समप्पाणं पसाधयदि ॥२२१।।
__ कथं तस्मिन्नास्ति मुर्छा आरम्भो वा असंयमस्तस्य ।
तथा परद्रव्ये रत: कथमात्मानं प्रसाधयति ।।२२१।। उपधिसद्भावे हि मम त्वपरिणामलक्षणाया मच्छीयास्तद्विषयकर्मप्रक्रमपरिणामलक्षणस्यारम्भस्य शुद्धात्मरूपहिसनपरिणामलक्षणस्यासंयमस्य वावश्यंभावित्वात्तथोपधिद्वितोयस्य परद्रव्यरतत्वेन शुद्धात्मध्यप्रसाधकत्वाभावाच्च ऐकान्तिकान्तरंगच्छेदत्वमुपोरवधायंत एव । इदमत्र तात्पर्यमेवंविधत्वमुपधेरवधार्य स सर्वथा सन्यस्तव्यः ॥२२१॥
भूमिका—'परिग्रह नियम से अन्तरंग छेद है' यह विस्तार से उपदेश करते हैं
अन्वयार्थ-[तस्मिन् ] उस परिग्रह सद्भाव में [तस्य ] उस भिक्षु के [ मूर्छा] मूळ, [आरम्भः] आरम्भ] [वा] या [असंयमः ] असंयम [नास्ति न हो [कथं] यह कैसे हो सकता है ? (कदापि नही हो सकता), [तथा] तथा [परद्रव्ये रतः] जो पर द्रव्य में रत हो वह [आत्मानं] आत्मा को [कथं] कैसे [प्रसाधयति] साध सकता है ? (नहीं साध सकता)
टीका-उपधि के सद्भाव में (१) ममत्वपरिणाम जिसका लक्षण है ऐसी मूर्छ, (२) परिग्रह सम्बन्धी कार्य व्यवस्था के परिणाम रूप लक्षण वाला आरम्भ, अथवा (३) शुद्धात्मस्वरूप को हिसारूप परिणाम जिसका लक्षण है ऐसा असंयम ये अवश्य होता ही है तथा उपधि जिसका द्वितीय है (अर्थात् परिग्रह आत्मा से अन्य है, वह परिग्रह जिसने किया है) उसके परद्रव्य में लीनता होने के कारण शुद्धात्मद्रव्य की साधकता का अभाव होता है, इससे उपधि के नियम से अन्तरङ्गछेद का निश्चय होता ही है। यहां यह तात्पर्य है कि-'उपधि अन्तरंग छेद ही हैं यह निश्चित करके उस परिग्रह को सर्वथा छोड़ना चाहिए ॥२२॥
तात्पर्यवृत्ति अथ सपरिग्रहस्य नियमेन चित्तशुद्धिर्नश्यतीति विस्तरेणाख्याति--
किह तम्हि णस्थि मुच्छा परद्रव्यममत्वरहितचिच्चमत्कारपरिणतेविसदृशामुळ कथं नास्ति अपि त्वस्त्येव । क्व ? तस्मिन् परिग्रहाकांक्षितपुरुषे आरंभो वा मनोवचनकायक्रियारहितपरमचैतन्य
१. किह (ज० वृ०) । २. तह (ज० ५०) । ३. पसाहदि (ज० वृ०) ।