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पवमणसारो ।
[ ५२१ भूमिका-अब, 'किसी के कहीं किसी प्रकार कोई परिग्रह अनिषिद्ध भी है,' ऐसा अपवाद' कहते हैं।
अन्वयार्थ-[येन ग्रहणविसर्गेष ] जिस उपकरण के ग्रहण विसर्जन से [सेवमानस्य] सेवन करने वाले के [छेदः] छेद | न विद्यते] नही होता [इह] इस लोक में [श्रमण:] शमग [का क्षेत्र निलाम कल ऐन को जानकर, [तेन वर्तताम्] उस उपकरण का सेवन करे।
टीका-आत्मद्रव्य के द्वितीय पुद्गल द्रव्य का अभाव होने से समस्त हो उपधि निषिद्ध है-ऐसा उत्सर्ग है, और विशिष्ट काल क्षेत्र के वश कोई उपधि अनिषिद्ध है-ऐसा अपवाद है। जब श्रमण सर्व उपधि के निषेध का आश्रय लेकर परमोपेक्षा संयम को प्राप्त करने का इच्छुक होने पर भी विशिष्ट काल क्षेत्र के वश होन-शक्तिवाला होने से उसे प्राप्त करने में असमर्थ होता है, तब उसमें होनता करके अनुत्कृष्ट संयम प्राप्त करता हुआ उस संयम को बहिरंग साधन मात्र उपधि का आश्रय लेता है। इस प्रकार जिस उपधि का आश्रय लिया जाता है ऐसी वह उपधि उपधिपन के कारण भी वास्तव में छेदरूप नहीं है, प्रत्युत छद को निषेधरूप ही है। जो उपधि अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होती, यह छेद है। किन्तु यह उपधि तो श्रामण्यपर्याय को सहकारी कारणभूत शरीर को स्थिति के हेतुभूत आहार नोहारादि के ग्रहण-विसर्जन सम्बन्धी छेद के निषेधार्थ ग्रहण को जाने से सर्वथा शुद्धोपयोग सहित है, इसलिये छ द के निषेधरूप ही है ।।२२२॥
तात्पर्यवृत्ति अथ कालापेक्षया परमोपेक्षासंयमशक्त्यभावे सत्याहारसंयमशौचज्ञानोपकरणादिकं किमपि ग्राह्यमित्यपवादमुपदिशति
छेदो जेण ण विज्जदि छेदो येन न विद्यते । येनोपकरणेन शुद्धोपयोगलक्षणसंयमस्य छेदो विनाशो न विद्यते। कयोः ? गहणविसग्गेसु ग्रहणविसर्गयोः यस्योपकरणस्यान्यवस्तुनो वा ग्रहण स्वीकारे विसर्जने। किं कुर्वतः तपोधनस्य ? सेवमाणस्स तदुपकरणं सेवमानस्य समणो तेणिह बट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता श्रमणस्तेनोपकरणेनेह लोके वर्त्ततां । किं कृत्वा ? काल क्षेत्रं च विज्ञायेति । अयमत्र भावार्थ:-कालं पञ्चमकालं शीतोष्णादिकालं वा क्षेत्र भरतक्षेत्र मानुषजाङ्गलादिक्षेत्र वा विज्ञाय येनोपकरणेन स्त्रसंवित्तिलक्षणभावसंयमस्य बहिरङ्गद्रव्यसंयमस्य वा छेदो न भवति तेन वर्तत इति ।।२२२॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि काल की अपेक्षा से साधु की शक्ति परम उपेक्षा संयम के पालने की न हो तो वह आहार करता है, संयम के उपकरण पीछी व शौच के