________________
५२२ ॥
[ पवयणसारो उपकरण कमण्डलु व ज्ञान के उपकरण शास्त्रादि को ग्रहण करता है, ऐसे आवाद मार्ग का उपदेश देते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ-(जेण गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स) जिस उपकरण के ग्रहण करने व रखने में उस उपकरण के सेवने वाले साधु के (बो ण विज्जदि) शुद्धोपयोगमयी संयम का घात न होवे (तेणिह समणो कालं खेत्तं वियाणिता घट्टदु) उसी प्रकरण के साथ इस लोक में साधु क्षेत्र और काल को जानकर वर्तन करे । यहाँ यह भाव है कि काल की अपेक्षा पञ्चमकाल या शीत उष्ण आदि ऋत. क्षेत्र की अपेक्षा भरतक्षेत्र, मनुष्यक्षेत्र या नगर जंगल आदि इन दोनों को जानकर जिस उपकरण से स्वसंवेदन लक्षण भावसंयम का अथवा बाहरी द्रव्य संयम का घात न होवे, उस तरह से बर्तना चाहिये ॥२२२॥ अथाप्रतिषिद्धोपधिस्वरूपमुपदिशति
अप्पडि कुठं उधि अपत्थणिज्जं असंजवजहि । मुच्छादिजणणरहिदं' गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं ॥२२३॥
__ अप्रतिष्दमुपधिमप्रार्थनीयमसंयतजनः ।
मूर्छादिजननरहितं गृह्णातु श्रमणो यद्यप्यल्पम् ।।२२३।। यः किलोपधिः सर्वथा बन्धासाधकत्वादप्रतिकुष्टः संयमादन्यत्रानुचितत्वावसंयतजनाप्रार्थनीयो रागादिपरिणाममन्तरेण धार्यमाणत्वान्मूच्छ दिजननरहितश्च भवति स खल्वप्रतिषिद्धः । अतो अथोवितस्वरूपएवोपधिरुपादेयो न पुनरल्पोऽपि यथोदितविपर्यस्तस्वरूपः ।
भूमिका-अब, अनिषिद्ध उपधि का स्वरूप कहते हैं
अन्वयार्थ-[यद्यपि अल्पम्] भले ही अल्प हो तथापि [अप्रतिकृष्टम् ] जो निषेधने योग्य न हो, [असंयतजनैः अप्रार्थनीय] असंयतजनों से अप्रार्थनीय हो, और [मु.दिजननरहितं] जो मूर्छा आदि को उत्पन्न न करे [उपधि] ऐसी उपधि को [श्रमणः] श्रमण [गृहातु] ग्रहण करो।
टीका--जो उपधि सर्वथा बंध की असाधक होने से अनिषिद्ध है, संयत के अतिरिक्त अन्यत्र अनुचित होने से असंयतजनों के द्वारा अप्रार्थनीय (अवाञ्छनीय) है और रागादिपरिणाम के विना धारण की जाने से मूर्छादि के उत्पादन से रहित है, वह वास्तव में अनिषिद्ध है । इससे यथोक्त स्थरूप वाली उपधि ही उपादेय है, किन्तु यथोक्त स्वरूप से विपरीत स्वरूप वाली अल्प मी उपधि-उपादेय नहीं है ॥२२३॥
१. मुच्छादिजणपरहियं (ज० ७०) ।