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पवयणसारो 1
[ ५२३ तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्वसूत्रोदितोपकरणस्वरूपं दर्शयति -
अप्पडिकुठं उवधि निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गसहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिद्धमुपधिमुपकरणरूपोपधि अपत्थणिज्जं असंजदजहि अप्रार्थनीय निर्विकारात्मोपलब्धिलक्षणमावसंघमराहतस्यासंयतजनस्यानभिलषणीयम् । मुच्छादिजणणरहियं परमात्मद्रव्यविलक्षणबहिर्द्रव्यममत्वरूपमुर्छा रक्षणार्जनसंस्कारादिदोषजननरहितम् । गेहदु समणो जवि वि अप्पं गृलातु श्रमणो यमप्यरूपं पूर्वोक्तमुपकरणोपधि यद्यप्यल्पं तथापि पूर्वोक्तोचित लक्षणमेव ग्राह्य न च तद्विपरीतमधिकं वेत्यभिप्रायः ॥२२३॥
उत्थानिका-आगे पूर्व गाथा में जिन उपकरणों को साधु अपवाद मार्ग में काम में ले सकता है उनका स्वरूप दिखलाते हैं।
अन्वय सहित विशेषार्थ—(समणो) साधु (उधि) परिग्रह को (अप्पडिकुटुं) जो निषेधने योग्य न हो, (असंजदजहि अपत्यणिज्ज) असंयमी लोगों के द्वारा चाहने योग्य न हो (मुच्छादिजणणरहिय) मूर्छा आदि भावों को न उत्पन्न करे (अदि वि अप्प) यद्यपि अल्प हो (गेन्दु) तो भी ग्रहण करें। साधु महाराज ऐसे उपकरणरूपी परिग्रह को ही ग्रहण करें जो निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग में सहकारी कारण होने से निषिद्ध न हो, जिसको वे असंयमी जन जो निधिकार आत्मानुभवरूप भावसंयम से रहित हैं, कभी मांगें नहीं, न उसको इच्छा करें तथा जिसके रखने से परमात्म-द्रध्य से विलक्षण माहरी द्रव्यों में ममतारूप मूळ न पैदा हो जावे, न उसके उत्पन्न करने का दोष हो, न उसके संस्कार से दोष उत्पन्न हो । ऐसे परिग्रह को यदि रक्खें तो भी बहुत थोड़ा रखें । इन लक्षणों से विपरीत परिग्रह न लेवें।
अथोत्सर्ग एत्र वस्तुधर्मो न पुनरपवाद इत्युपदिशति--
किं किचण त्ति तक्कं अपुणब्भवकामिणोध' देहे वि । संग ति जिणवरिंका णिप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा ॥२२४॥
कि किचनमिति तर्क: अपुनर्भवकामिनोज्थ देहेऽपि ।
संग इति जिनवरेन्द्रा निःप्रतिकर्मत्वमुद्दिष्टवन्तः ।।२२४॥ अत्र श्रामण्यपर्यायसहकारिफारणत्वेनाप्रतिषिध्यमानेऽत्यन्तमुपात्तदेहेऽपि परद्रव्यत्वापरिग्रहोऽयं न नामानुग्रहाहः किंतुपेक्ष्य एवेत्यप्रतिकर्मत्वमुपदिष्टवन्तो भगवन्तोऽर्हद्दपाः । अथ तत्र शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसंभावनरसिकस्य पुंसः शेषोऽन्योऽनुपात्तः परिग्रहो बराफः कि नाम स्यादिति व्यक्त एव हि तेषामाकूतः । अतोऽवधार्यते उत्सर्ग एव वस्तुधमों न पुनरपथावः । इसमत्र तात्पर्य वस्तुधर्मत्वात्परमनन्थ्यमेवालम्ब्यम् ॥२२४॥
भूमिका-अम, 'उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं ऐसा उपदेश करते हैं१. अथ (ज. वृ०)।