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पवयणसारो ]
[ ५२५ और परिग्रह का विचार क्या किया जा सकता है। शुद्धोपयोग लक्षणमयी परम उपेक्षा संयम के बल से वेह में भी कुछ प्रतिकर्म अर्थात ममत्व नहीं करना चाहिये तब ही वीतराग संयम होगा, ऐसा जिनेन्द्रों का उपदेश है। इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि मोक्ष सुख के चाहने वालों को निश्चय से शरीर आदि सब परिग्रह का त्याग ही उचित है अन्य कुछ भी कहना सो उपचार है ।।२२४॥ इस तरह अपवाद व्याख्यान के रूप में दूसरे स्थल में तीन गाथाएं पूर्ण हुई।
तात्पर्यवृत्ति अथैकादशगाथापर्यन्तं स्त्रीनिर्वाणनिराकरणमुख्यत्वेन व्याख्यानं करोति । तद्यथा-श्वेताम्बरमतानुसारी शिष्यः पूर्वपाई करोनि.-.
पेच्छवि ण हि इह लोग परं च समणिददेसिदो धम्मो।
धम्मम्हि तम्हि कम्हा वियप्पियं लिंगमित्थीणं ।।२२४-१॥ पेच्छदि ण हि इह लोगं निरुपरागनिजचंतन्यनित्योपलब्धिभावनाबिनाशक ख्यातिपूजालाभरूपं प्रेक्षते न च हि स्फुट इह लोकं । न च केवलमिह लोकं परं च स्वात्मप्राप्तिरूपं मोक्ष विहाय स्वर्गभोगप्राप्तिरूपं परं च परलोकं च नेच्छति । स कः ? समर्माणददेसिदो धम्मो श्रमणेन्द्रदेशितो धर्मः जिनेन्द्रोपदिष्ट इत्यर्थः । धम्मम्हि तम्हि कम्हा धर्मे तस्मिन् कस्मात् वियप्पियं विकल्पितं निर्ग्रन्थलिङ्गाद्वस्त्रप्रावरणेन पृथककृतं । किं ? लिंगं सावरणचिन्हें । कासां सम्बन्धि ? इत्थीणं स्त्रीणामिति पूर्वपक्षगाथा ।।१॥
उत्थानिका-आगे ग्यारह गाथाओं तक स्त्री को उसी भव से मोक्ष हो सकता है इसका निराकरण करते हुए व्याख्यान करते हैं । प्रथम ही श्वेताम्बर मत के अनुसार बुद्धि रखने वाला शिष्य पूर्वपक्ष करता है
___ अन्वय सहित विशेषार्थ----(समिणिददेसियो धम्मो) श्रमणों के इन्द्र जिनेन्द्रों से उपदेश किया हुआ धर्म (इह लोगं परं च) इस लोकको तथा परलोकको (ण हि पेच्छदि) नहीं चाहता है । (तम्हि धम्मम्हि) उस धर्म में (कम्हा) किसलिये (इत्थोणं लिंग) स्त्रियों का वस्त्र-सहित लिंग (विप्पियं) भिन्न कहा है ? यह शंका रूप गाथा है। जैनधर्म वीतराग निज चैतन्यभाव की नित्य प्राप्ति की भावना के विनाशक अपनी पूजा व लाभ रूप इस लौकिक विषय को नहीं चाहता है और न अपने आत्मा की प्राप्तिरूप मोक्ष को छोड़कर स्वर्गों के भोगों की प्राप्ति की कामना करता है । यहां यह शंका की गई है कि ऐसे धर्म में स्त्रियों का वस्त्र सहित लिंग किसलिये निर्गन्य लिग से भिन्न कहा गया है ? ॥२२४-१॥