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पक्यणसारो ]
[ ५१७ क्लओ) कर्मों का भय (मिहिपी) जमित हो अनि हो । यदि साधु सर्वथा ममता या इच्छा त्यागकर सर्व परिग्रह त्याग न करे किन्तु यह इच्छा रक्खे कि कुछ भी वस्त्र या पात्र आदि रख लेने चाहिये, तो अपेक्षा सहित परिणामों के होने पर उस साधु के चित्त की शुद्धि नहीं हो सकती है । तब जिस साधु का चित्त शुद्धात्मा की भावना रूप शुद्धि से रहित होगा उस साधु के कर्मों का क्षय होना किस तरह उचित होगा अर्थात् उसके कर्मों का नाश नहीं हो सकता है।
. इस कथन से यह भाव प्रगट किया गया है कि जैसे बाहर का तुष रहते हुए चावल के भीतर की शुद्धि नहीं की जा सकती। इसी तरह विद्यमान परिग्रह में या अविद्यमान परिग्रह में जो अभिलाषा है उसके होते हुए निर्मल शुद्धात्मा के अनुभव को करने वाली चित्त की शुद्धि नहीं की जा सकती है । जब विशेष वैराग्य के होने पर सब परिग्रह का स्याग होगा तब भावों को शुद्धि अवश्य होगी ही, परन्तु यवि प्रसिद्धि पूजा या लाभ के निमित्त त्याग किया जायेगा तो चित्त की शुद्धि नहीं होगी ॥२२०॥
अथ तमेव परिग्रहत्यागं दृढ़यति
गेहदि व चेलखंड भायणमस्थित्तिमणिदमिह सुत्ते। जदि सो चत्तालंबो हवदि कहं वा अणारंभो ॥२२०-१॥ वत्थक्खंडं दुद्दियभायणमष्णं च गेलधि णिय । विज्जदि पाणारंभो विक्खेवो तस्स चितम्मि ॥२२०-२॥ गेलइ विधुणइ घोबइ सोसेइ अदं तु आदवे खित्ता।
पत्तं व चेलखंडं विभेदि परदो य पालयदि ॥२२०-३॥ गेहदि व चेलखंडं गृह्णाति बा चेलखण्डं वस्त्रखण्ड भायणं भिक्षाभाजनं वा अत्यित्ति भणिवं अस्तीति भणितमारते ? क्व । इह सुरो इह विवक्षितागमसूत्रे जदि यदि चेत् ? सो चसालंबो हवदि कह निरालम्बनपरमात्मतत्त्वभावनाशून्यः सन् स पुरुषो बहिर्द्रव्यालम्बनरहितः कथं भवति, न कथमपि वा अणारंमो निःनियनिरारम्भनिजात्मतत्त्वभावनारहितत्वेन निराम्भो वा कथं भवति किन्तु सारम्भ एव, इति प्रथमगाथा । बत्थक्खंड दुदियभायणं वस्त्रखण्डं दुग्धिकाभाजनं अण्णं च मेण्हदि अन्यच्च गृह्णाति कम्बलमृदुश्शयनादिकं यदि चेत् । तदा कि भवति ? णियदं विज्जदि पाणारंभी निजशुद्धचैतन्यलक्षणप्राणविनाशरूपो परजीवप्राणविनाशरूपो वा नियतं निश्चितं प्राणारम्भः प्राणवधो विद्यते न केवलं प्राणारम्भः विक्खेवो तस्स चित्तम्मि अविक्षिप्तचित्तपरमयोगरहितस्य परिग्रहपुरुषस्य विक्षेपस्तस्य विद्यते चित्ते मनसीति । इति द्वितीयगाथा। गेण्हइ स्वशुद्धात्मग्रह्णशून्यः सन् गृह्णाति किमपि बर्दिव्यं विधुणइ