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[ पवयणसारो भवतीति निर्दिशति-ण हि हिरवेक्खो चागो न हि निरपेक्षस्त्यागः यदि चेत् परिग्रहत्यागः सर्वथा निरपेक्षो न भवति किन्तु किमपि बस्त्रपात्रादिकं ग्राह्यमिति भवता भण्यते तर्हि हे शिष्य ! ण हयदि भिक्खुस्स आसयविसोही न भवति भिक्षोराशयविशुद्धिः तदा सापेक्षपरिणामे सति भिक्षोस्तपोधनस्य चित्तशुद्धिन भवति । अविसुद्धस्स हि चित्ते शुद्धात्मभावनारूपशुद्धिरहितस्य तपोधनस्य चित्ते मनसि हि स्फुटं कहं गु कम्मक्खओ विहियो कथं तु कर्मक्षयो विहितः उचितो न कथमपि । अनेनंतदुक्तं भवति–यथा बहिरङ्गतुषसद्भावे सति तण्डुलस्याभ्यन्तरशुद्धि कत्तुं नायाति तथा विद्यमानेऽविद्यमाने वा बहिरङ्गपरिग्रहेऽभिलाषे सति निर्मलशुद्धात्मानुभूतिरूपां चित्तशुद्धि कत्तुं नायाति। यदि पुनविशिष्टवैराग्यपूर्वकपरिग्रहत्यागो भवति तदा चित्तशुद्धिर्भवत्येव ख्यातिपूजालाभनिमित्तत्यागे तु न भवति ॥२२०||
उत्थानिका--अब आगे चारित्र का देशकाल की अपेक्षा से अपहत संयमरूप अपवादपना समझाने के लिये पाठ के क्रम से तीस गाथाओं से दूसरा अन्तराधिकार प्रारम्भ करते हैं। इसमें चार स्थल हैं।
पहले स्थल में निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग की स्थापना की मुख्यता से "ण हि हिरवेक्खो चागो" इत्यादि गाथाएं पांच हैं । इनमें से तीन गाथाएं श्री अमृतचन्द्रकृत टीका में नहीं हैं । फिर सर्व पाप के त्यागरूप सामायिक नाम के संयम के पालने में असमर्थ यतियों के लिये संयम, शौच व ज्ञान का उपकरण होता है। उसके निमित्त अपवाद व्याख्यान की मुख्यता से "छेदो जेण ण विज्जदि" इत्यादि सूत्र तोन हैं। फिर स्त्री को तद्भव मोक्ष होती है इसके निराकरण की प्रधानता से 'पेच्छदि णहि इह लोग' इत्यादि ग्यारह गाथाए हैं । ये गाथाए श्री अमृतचन्द्राचार्य की टीका में नहीं हैं । इसके पीछे सर्व उपेक्षा संयम के लिये जो साधु असमर्थ है उसके लिये देश व काल की अपेक्षा से इस संयम के साधक शरीर के लिये कुछ दोष-रहित आहार आदि सहकारी कारण ग्रहण करने योग्य हैं। इससे फिर भी अपवाद के विशेष व्याख्यान की मुख्यता से "उवयरणं जिणमन्ग" इत्यादि ग्यारह गाथाएं हैं, इनमें से भी उस टीका में ४ गाथाएं नहीं हैं। इस तरह मूलसूत्रों के अभिप्राय से तीस गाथाओं से तथा अमृतचन्द्रकृत टीका की अपेक्षा से बारह गाथाओं से दूसरे अन्तर अधिकार में समुदायपातनिका है।
गाथा की उत्थानिका अब कहते हैं कि जो भावों की शुद्धिपूर्वक बाहरी परिग्रह का त्याग किया जाये तो अभ्यंतर परिग्रह का ही त्याग किया गया ।
अन्वय सहित विशेषार्थ—(गिरदेवखो) अपेक्षा रहित (चागो) त्याग (ण हि) यदि न होवे तो (भिक्खुस्स) साधु के (आसयविसोही ण हवदि) आशय या चित्त की विशुद्धि नहीं होवे । (य) तथा (अविसुद्धस्स चित्ते) अशुद्ध मन के होने पर (कहं ) किस तरह (कम्म
१-श्वेताम्बरेण ।