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| पवयणसारो
महाश्रमणाः सर्वज्ञाः पूर्वं दीक्षाकाले शुद्धबुद्धकस्वभावं निजात्मानमेव परिग्रहं कृत्वा शेषं समस्तं वाह्याभ्य न्तरपरिग्रहं छर्दितवन्तस्त्यक्तवन्तः । एवं ज्ञात्वा शेषतपोधनैरपि निजपरमात्मपरिग्रहं स्वीकारं कृत्वा शेषः सर्वोऽपि परिग्रहो मनो वचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च त्यजनीय इति । अत्रेदमुक्त भवति शुद्धचैतन्यरूपनिश्चयप्राणे रागादिपरिणामरूपनिश्चयहिंसया पार्तिते सति नियमेन बन्धो भवति । परजीवघाते पुनर्भवति न भवति नियमो नास्ति, परद्रव्ये ममत्वरूपमुर्च्छापरिग्रहेण तु नियमेन भवत्येवेति ॥२१६||
एवं भावहिंसा व्याख्यानमुख्यत्वेन पञ्चमस्थले गाथाषट्कं गतम् । इति पूर्वोक्तक्रमेण एवं पण मिय सिद्धे' इत्याद्येकविंशतिगाथाभिः स्थलः तं चकेनोत्सर्ग चारित्रव्याख्याननामा “प्रथमोऽन्तराधिकारः"
रामातः!
उत्थानिका- आगे आचार्य कहते हैं कि बाहरी जीव का घात होने पर बन्ध होता है तथा नहीं भी होता है, किन्तु परिग्रह के होते हुए तो नियम से बन्ध होता है ।
अन्वय सहित विशेषार्थ -- (कायचेट्ठम्हि ) शरीर से हलन चलन आदि क्रिया के होते हुए ( जीवे मदम्ह ) किसी जंतु के मर जाने पर (हि) निश्चय से ( बंधो हवदि) कर्मबंध होता है ( वा ण हववि) अथवा नहीं होता है (अथ ) परन्तु ( उवधीदो ) परिग्रह के निमित्त से (बंधो धुवं ) बंध निश्चय से होता ही है ( इवि ) इसीलिये ( समणा ) साधुओं ने ( स ) सर्व परिग्रह को (छड़िया) छोड़ दिया । साधुओं ने व महाश्रमण सर्वज्ञों ने पहले दीक्षाकाल में शुद्ध बुद्ध एक स्वभावमयी अपने आत्मा को हो परिग्रह मानकर शेष सर्व बाह्य अभ्यंतर परिग्रह को छोड़ दिया ऐसा जानकर के अन्य साधुओं को भी अपने परमात्मस्वभाव को ही अपना परिग्रह स्वीकार करके शेष सर्व हो परिग्रह को मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना से त्याग देना चाहिये। यहां यह कहा गया है कि शुद्ध चैतन्यरूप निश्चयप्राण का घात जब राग द्वेष आदि परिणामरूप निश्चयहसा से किया जाता है तब नियम से बन्ध होता है। पर जीव के घात हो जाने पर बंध हो वा न भी हो, किन्तु परद्रव्य में ममतारूप मूर्छा परिग्रह से तो नियम से बंध होता हो है ॥ २१६ ॥
इस तरह भाव हिंसा के व्याख्यान की मुख्यता से पांचवें स्थल में छः गाथाएं पूर्ण हुई । इस तरह पहले कहे हुए क्रम से "एवं पणमिय सिद्धे" इत्यादि २१ इक्कीस गाथाओं से ५ स्थलों के द्वारा उत्सर्ग चारित्र का व्याख्याननामक प्रथम अन्तराधिकार पूर्ण हुआ । अथान्तरङ्गच्छेदप्रतिषेध एवायमुपधिप्रतिषेध इत्युपविशति -
ण हि रिवेक्खो चागो ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी' । अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिवो ॥ २२० ॥
१-आसवविसोही (ज० ब० ) । २ - विहियो (ज० वृ० ) |