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[ पवयणसारो निश्चलं स्थिरम् । पुनरपि किंविशिष्टम् ? अणालंवं स्वाधीनस्वद्रव्यत्वेन सालम्बनं भरितावस्थमपि समस्तपराधीनपरद्रव्यालम्बनरहितत्वेन निरालम्बनमित्यर्थः ।।१६२।।
उत्थानिका—आगे कहते हैं कि शुद्ध आत्मा ध्रुव है इसलिये मैं शुद्ध आत्मा की भावना करता हूं ऐसा शानी विचारता है ।
अन्यार दहित विशेषार्थ- (ग) हाट तरन (मापाणं) ज्ञान स्वरूप (दंसगभूवं) दर्शन स्वरूप (अइंदियम्) इन्द्रियों के अगोचर अतीन्द्रिय स्वरूप (धुवम्) अविनाशी (अचलं) अपने स्वरूप में निश्चल (अणालंब) परालम्बन रहित (सुद्ध) शुद्ध (महत्य) महान पदार्थ ऐसे (अप्पगं) अपने आत्मा को (अहं मण्णे) मैं अनुभव करता हूँ। ध्यानी विचारता है कि मैं अपने आत्मा को सर्व तरह उपादेय समझकर इस तरह अनुभव करता हूं कि यह सहज परमानन्दमयो एक लक्षण को रखने वाला आत्मा रागादि सर्व विभावों से रहित शुद्ध है, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वमाद रूप रहने से अविनाशी है, अखण्ड एक ज्ञान दर्शन स्वरूप है। मूर्तिक, विनाशीक, अनेक इन्द्रियों से रहित होने के कारण अमूतं, अविनाशी एक ही अतीन्द्रिय स्वभाव है । मोक्ष रूप महापुरुषार्थ का साधक होने से महान पदार्थ है, अतिचंचल मन बचन काय के व्यापारों से रहित होने से अपने स्वरूप में निश्चल है तथा स्वाधीनपने से स्वालम्बन रूप भरा हुआ होने पर भी सर्व पराधीन परद्रव्य के आलम्बन से रहित होने के कारण निरालम्ब है ॥१६२॥ अथाध्रुवत्वादात्मनोऽन्यन्नोपलभनीयमित्युपदिशति
वेहा वा दविणा वा सुहदुक्खा बाध सत्तुमित्तजणा। जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा ॥१६॥
देहा वा द्रविणानि वा सुखदुःख्ने बाथ शत्रुमित्रजनाः ।।
जीवस्य न सन्ति ध्रुवा ध्रुव उपयोगात्मक आत्मा ।।१६३॥ आत्मनो हि परद्रव्याविभागेन परद्रव्योपरज्यमानस्वधर्मविभागेन वाशुद्धत्वनिवन्धनं न किंचनाप्यन्यदसद्धेतुमत्वेनावन्तवत्त्वात्परतः सिद्धत्वाच्च ध्रुवमस्ति । ध्रुव उपयोगात्मा शुद्ध आत्मैव । अतोऽव वं शरीरादिकमुपलभ्यमानमपि नोलभे शुद्धात्मानमुपलमे ध्रुवम् ॥१६॥
भूमिका-अब, यह उपदेश देते हैं कि अन यत्व के कारण आत्मा के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी उपलब्ध करने योग्य नहीं है
अन्वयार्थ-[देहाः वा] शरीर, [द्रविणानि वा] धन, [सुखदुःखे] सुख दुःख