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पबयणसारो ।
[ ४८३ ततश्च कि करोति ? परमचैतन्यमापनिजात्मतत्त्वसर्वप्रकारोपादेयरुचिपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिसमस्तपरद्रव्येनछानिवृत्तिलक्षणतपश्चरणस्वशक्त्यनवगृहनवीर्याचाररूपं निश्चयपञ्चाचारमाचारादिचरणग्रंथकथिततत्साधकान्यवहारपञ्चाचार चाश्रयतात्यर्थः । अत्र यद्गोत्रादिभिः सह क्षमितव्यव्याख्यानं कृतं तदत्रातिप्रसङ्गनिषेधार्थम् । तत्र नियमो नास्ति । कथमिति चेत् ? पूर्वकाले प्रचुरेण भरतसगररामपाण्डवादयो राजान एवं जिनदीक्षां गृह्णन्ति, तत्परिवारमध्ये यदा कोऽपि मिथ्यादृष्टिर्भवति तदा धर्मस्योपसर्ग करोतीति । यदि पुनः कोऽपि मन्यते गोत्रसम्मतं कृत्वा पश्चात्तपश्चरणं करोमि तस्य प्रचुरेण तपश्चरणमेव नास्ति कथमपि तपश्चरणे गृहीतेऽपि यदि गोत्रादिममत्वं करोति तदा तपोधन एव न भवति । तथाचोक्तं--जो सकलणयररज्जं पुवं वइऊण कुणइ य मर्मात्त । सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण हिस्सारो" ।।२०२।।
उत्थानिका-आगे जो श्रमण होने की इच्छा करता है उसको पहले क्षमाभाव करना चाहिये । “उवढिदो होदि सो समणो" इस छठी गाथा में जो व्याख्यान है, उसी को मन में धारण करके पहले क्या क्या काम करके साधु होवेगा उसी का व्याख्यान करते हैं
___ अन्वय सहित विशेपार्थ- (बन्धुवग्ग) बन्धुओं के समूह को (आपिच्छ) पूछकर (गुरुकलत्तपुत्तेहि) माता पिता स्त्री पुत्रों से (विमोचिदो) छूटता हुआ (णाणदसणचरित्ततववोरियायारं) जान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य ऐसे पांच आधारों को (आसिज्ज) आश्रय करके मुनि होता है।
वह साधु होने का इच्छुक इस तरह बंधुवर्गों को समझाकर क्षमाभाव करता व फराता है कि अहो बन्धु जनो ! मेरे पिता माता स्त्री पुत्रो! मेरी आत्मा में परम मेव ज्ञानरूपी ज्योति उत्पन्न हो गई है इससे यह मेरा आत्मा अपने ही चिदानन्दमयी एक स्वभावरूप परमात्मा को ही निश्चयनय से अनादिकाल के बन्धुवर्ग, पिता, माता, स्त्री, पुत्ररूप मानकर उन्हीं का आश्रय करता है इसलिये आप सब मुझे छोड़ दो-मेरा मोह त्याग दो व मेरे दोषों पर क्षमा करो, इस तरह क्षमाभाव कराता है। उसके पीछे निश्चय पंचाचार को और उसके साधक आचारादि ग्रंथों में कहे हुए व्यवहार पंचाचार को भाश्रय करता है। परम चैतन्यमात्र निज आत्मतत्व ही सब तरह से ग्रहण करने योग्य है ऐसी रुचि सो निश्चयसम्यग्दर्शन है ऐसा ही ज्ञान सो निश्चय से सम्यग्ज्ञान है, उसी निज स्वभाव में निश्चलता से अनुभव करना सो निश्चयसम्यक्चारित्र है, सर्व परद्रयों को इच्छा से रहित होना सो निश्चयतपश्चरण है तथा अपनी आत्मशक्ति को न छिपाना तो निश्चयवीर्याचार है। इस तरह निश्चयपंचाचार का स्वरूप जानना चाहिये।
यहां जो यह व्याख्यान किया गया कि अपने बन्धु आदि के साथ क्षमा करावे सो यह कथन अतिप्रसङ्ग अर्थात् अमर्यादा के निषेध के लिये है। दीक्षा लेते हुए इस बात का