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[ पवयणसारो अन्वय सहित विशेषार्थ-(अहं) मैं (परेसि) दूसरों का (ण होमि) नहीं हूं (ण मे परे) न दूसरे द्रव्य मेरे हैं। इस तरह (इह) इस लोक में (किचि) कोई भी पदार्थ (मज्झम्) मेरा (पत्थि) नहीं है। (इदि णिच्छिदो) ऐसा निश्चय करता हुआ (जिदिदो) जितेन्द्रिय (जधजादरूवधरो) और जैसा मुनि का स्वरूप होना चाहिये वैसा निर्ग्रन्थ रूप धारी (जादो) हो जाता है। दीक्षा लेने वाला साधु अपने मन वचन काय से सर्व परिग्रह से ममता त्याग देता है। इसीलिये वह मन में ऐसा निश्चय कर लेता है कि मेरे अपने शुद्ध आत्मा के सिवाय और जितने परद्रव्य हैं उनसे मेरा सम्बन्ध नहीं है और न परद्रव्य मेरे सम्बन्धी हैं। इस जगत में मेरे मिवाण मेरा कोई भी पर द्रव्य नहीं है। तथा वह अपनी पांच इंद्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले विकल्पजालों से रहित व अनन्तज्ञान आदि गुण स्वरूप अपने परमात्म-द्रश्य से विपरीत इन्द्रियों और नोइंद्रिय को जीत लेने से जितेन्द्रिय हो जाता है और यथाजात रूपधारी हो जाता है । अर्थात व्यवहारनय से नग्नपना यथाजात रूप है और निश्चय से अपने आत्मा का जो यथार्थ स्वरूप है वह यथाजात रूप है । साधु इन दोनों को धारण करके निर्ग्रन्थ हो जाता है ।।२०४॥
अर्थतस्य यथाजातरूपधरत्वस्यासंसारानभ्यस्तत्वेनात्यन्तमप्रसिद्धस्याभिनवाभ्यास कौशलोपलभ्यमानायाः सिद्धेर्गमकं बहिरङ्गान्तरङ्गद्धतमुपदिशति---
जधजादरूवजादं उत्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं । रहिदं हिंसादोदो अप्पडिकम्म हवदि लिगं ॥२०॥
मुच्छारंभविजुत्तं जुत्तं उवओगजोगसुद्धीहि । लिगं ण परावेक्खं अपुणब्भवकारणं जेव्हं ॥२०६॥ [जुगलं]
यथाजातरूपजातमुत्पाटितकेशश्मधुकं शुद्धम् ।। रहितं हिंसादितोऽप्रतिकर्म भवति लिङ्गम् ।।२०५।। मुर्छारम्भवियुक्त युक्तमुपयोगयोगशुद्धिभ्याम् ।
लिङ्गन परापेक्षमपुनर्भवकारणं जैनम् ॥२०६।। युगलम्] आत्मनो हि तायदात्मना यथोदितक्रमेण यथाजातरूपधरस्य जातस्यायथाजातरूपधरत्वप्रत्यायाना मोहरागद्वेषावि भावानां भवत्येवाभाषः तदमावात्तु तद्भावभाधिनो निर्वसनभूषणधारणस्य मूर्धजव्यञ्जनपालनस्य सकिंचनत्वस्य सावधयोगयुक्तत्वस्य शरीरसंस्कारकरणत्यस्य चाभावाद्यथाजातरूपत्वमुत्पाटितके शश्मश्रुत्वं शुद्धत्वं हिंसादिरहितत्वमप्रतिकर्मत्वं च भवत्येव,
१. तप्पाडियकेसमंसुगं (ज० वृ.) । २. मुच्छारम्भविमुक्कं (ज० वृ०) । ३. इवजोगजोगसुद्धोहिं (ज० वृ०) । ४. जोण्हं (ज० बृ०)।