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पवयणसारो ]
[ ४६६ च्युतिरेकादेश छंदः, सर्वथा च्युतिः सकलदेश छेद इति देशसकलभेदेन द्विधा छेदः । तयोश्छेदयोर्ये प्रायश्चित्तं दत्वा संवेगवैराग्यजनकपरमागमवचनैः संवरणं कुर्वन्ति ते निर्यापका: शिक्षागुरवः श्रुतगुरवश्चेति भण्यन्ते । दीक्षादायकस्तु दीक्षागुरुरित्यभिप्रायः ॥२१०।।
उस्थानिका-अब यह दिखलाते हैं कि इस तप ग्रहण करने वाले साधु के लिये जैसे दीक्षादायक आचार्य या साधु होते हैं वैसे अन्य निर्यापक नाम के गुरु भी होते हैं।
अन्वय सहित विशेषार्थ---(लिंगग्गहणं) मुनि भेष के ग्रहण करते समय (तेसि गुरू:) उन साधुओं का जो गुरु होता है (इति) वह (पच्वज्जदायगो) दीक्षागुरु (होदि) होता है। (छेदेसुअवट्टवगा) एकदेश या सर्वदेश तभंग होने पर जो फिर व्रत में स्थापित कराने वाले होते हैं (सेसा) ये सब शेष (णिज्जावगा समणा) निर्यापक श्रमण या शिक्षागुरु होते हैं । अभेद-समाधि-परमसामायिकरूप दीक्षा के जो दाता हैं उनको दीक्षा-गुरु कहते हैं तथा छेद दो प्रकार का है, जहाँ अभेद समाधिरूप सामायिक का एकदेश भङ्ग होता है उसको एक-देश छेद व जहाँ सबंथा भङ्ग होता है उसको सर्वदेश छेद कहते हैं । इन वोनों प्रकार छेदों के होने पर जो साधु प्रायश्चित्त देकर संवेग वैराग्य को पंदा करने वाले परमागम के वचनों से उन छेदों का निवारण करते हैं वे निर्यापक या शिक्षागुरु या श्रुतगुरु कहे जाते हैं । दीक्षा देने वाले को दीक्षागुरु कहते हैं, यह अभिप्राय है ॥२१०॥ अथ छिन्नसंयमप्रतिसंधानविधानमुपदिशति
पयदम्हि समारद्ध छेदो समणस्स कायचेम्हि । जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुब्विया किरिया ॥२११॥ छेदुवजुत्तो' समणो समणं क्वहारिणं जिणमदम्हि । आसेज्जालोचित्ता उवदिळं तेण कादव ॥११२॥ [जुगल]
प्रयतायां समारब्धायां छेदः श्रमणस्य कायचेष्टायाम् । जायते यदि तस्य पुनरालोचनपूर्विका क्रिया ।।२११।।
छेदोपयुक्तः श्रमणः श्रमणं व्यवहारिणं जिनमते ।
आसाद्यालोच्योपदिष्टं तेन कर्तव्यम् ॥२१२।। [युगलम् द्विविधः किल संयमस्य छेदः, बहिरङ्गोऽन्तरङ्गश्च । तत्रकायचेष्टामात्राधिकृतो बहिरङ्ग, उपयोगाधिकृतः पुनरन्तरंगः । तत्र यदि सम्यगुपयुक्तस्य श्रमणस्य प्रपत्नसमारब्धायाः कायचेष्टायाः कथंचिद्बहिरङ्गच्छेदो जायते तस तस्य सर्वथान्सरंगच्छेदजित
१. छेदपउत्तो (ज० वृ०) । २. कायध्वं (ज० वृ०)।