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[ पवयणसारो इस तरह गुरु की अवस्था को कहते हुए प्रथम गाथा तथा प्रायश्चित को कहते हुए दो गाथाएं इस तरह समुदाय से तीसरे स्थल में तीन गाथाएं पूर्ण हुई ।
अथ श्रामण्यस्य छेदायतनत्वात् परद्रव्यप्रतिबन्धाः प्रतिषेध्या इत्युपविशति - अधिवासे व विवासे छेदविहूणो' भवीय सामण्णे । समणो विहरदु णिच्चं परिहरमाणो निबंधाणि ॥ २१३ ॥ अधिवासे वा विवासे छेदविहीनो भूत्वा श्रामण्ये 1 श्रमणो विहतु नित्यं परिहरमाणो निबन्धान् ॥ २१३॥ सर्व एव हि परद्रव्यप्रतिबन्धा उपयोगोपरञ्जकत्वेन निरुपरागोपयोगरूपस्य श्रामयस्य छेदायतनानि तदभावादेवाछिन्नश्रामण्यम् । अतः आत्मन्येवात्मनो नित्याधिकृत्य बासे वा गुरुत्वेन गुरूनधिकृत्य वासे वा गुरुभ्यो विशिष्ट वासे वा नित्यमेव प्रतिषेधयन् परद्रव्यप्रतिबन्धान् श्रामण्ये छेदविहीनो भूत्वा श्रमणो वर्तताम् ॥२९३॥
भूमिका – अब, श्रामण्य छेद के आयतन होने के कारण परद्रव्य से संबंध निषेध करने योग्य है, ऐसा उपदेश करते हैं-----
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अन्वयार्थ – [ अधिवासे] अधिवास में (गुरुओं के सहवास में) वसते हुये [वा ] या [विवासे] विवास में ( गुरुओं से भिन्न स्थान में) बसते हुये, [ नित्यं ] सदा पर द्रव्य के सम्बन्धों को [ परिहरमाणः ] परिहरण करता हुआ | श्रामण्ये ] [छेदविहीनः भूत्वा ] छेदविहीन होकर [श्रमणः विहरतु] भ्रमण विहार करो ।
निबंधान् ] यतिधर्म में
टीका - वास्तव में सभी परद्रव्य का संबंध उपयोग को विकारी करने वाला होने से निर्विकारी उपयोगरूप यति-धर्म छेद का आयतन है, उसके अभाव से हो अछिन्न श्रामण्य होता है । इसलिये आत्मा में ही आत्मा को सदा स्थापित करके ( आत्मा में ) वसते हुये अथवा गुरुरूप से गुरुओं को स्थापित करके ( गुरुओं के सहवास में ) निवास करते हुये या गुरुओं से विशिष्ट भिन्नवास में वसते हुये, सदा ही परद्रव्य संबंधों को निषेधता (परिहरण करता हुआ यतिधर्म छेदविहीन होकर श्रमण वर्तन करे || २१३ ॥
तात्पर्यवृत्ति
अथ निर्विकारश्रामण्यछेदजनकान्परद्रव्यानुबन्धानिषेधयति ;
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विहरतु विहरतु विहारं करोतु । सः कः ? समणो शत्रु मित्रादिसमचित्तश्रमणः णिच्चं नित्यं सर्वकालं । किं कुर्वन्सन् ? परिहरमाणो परिहरन्सन् । कान् ? निबंधाणि चेतनाचेतनमिश्रपरद्रव्येध्वनुबन्धान् । क्व विहरतु ? अधिवासे व अधिकृत गुरुकुलवासे निश्वयेन स्वकीयशुद्धात्मवासे वा विवासे
१. छेदविहीणी ( ज० वृ० ) ।