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पवयणसारो ]
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हम पदार्थ के विचार में सहकारी कारण समता और शील के समूह तपोधन सो श्रमण हैं, राधिके श्रृंगार न रागद्वेषादि कथा करना सो विकथा है । इन भक्त, क्षपण आवसथ, बिहार, उपधि, श्रमण तथा विकथाओं में साधु महाराज अपना ममताभाव नहीं रखते हैं। भाव यह है कि आगम से विरुद्ध आहार विहार आदि में वर्तने का तो पहले ही निषेध है अतः अब साधु की अवस्था में योग्य आहार विहार आदि में भी साधु को ममता न करनी चाहिये ॥ २१५ ॥
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इस तरह संक्षेप से आचरण की आराधना आदि को कहते हुए साधु महाराज बिहार के व्याख्यान की मुख्यता से चौथे स्थल में तीन गाथाएँ पूर्ण हुई । अय को नाम छेद इत्युपदिशति -
अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु ।
समणस्स सव्वकाले हिंसा सा संतय त्ति' मदा ॥ २१६ ॥ अप्रयता वा चर्यां शयनासनस्थान चंक्रमणादिषु ।
श्रमणस्य सर्वकाले हिंसा सा संततेति मता ॥ २१६ ॥
अशुद्धोपयोगी हि छेदः शुद्धोपयोगरूस्य श्रामण्यस्य छेदनात्, तस्य हिसनात् स एव च हिंसा । अतः श्रमणस्य शुद्धोपयोगाविनाभाविनी शयनासनस्थानचंक्रमणादिष्वप्रयता या चर्या स खलु तस्य सर्वकालमेव संतानवाहिनी छेदानर्थान्तरभूता हिंसंव ॥ २१६ ॥
भूमिका -- अब छेद क्या है, उसका उपदेश करते हैं
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अन्वयार्थ - [ श्रमणस्य ] श्रमण के [ शयनासनस्थान चंक्रमणादिषु ] शयन, बैठना, रहना, गमन इत्यादि में [ अप्रयता वा चर्या | जो अयत्नाचार चर्या है [ सा ] वह [ सर्वकाले ] सदा [ सतता हिंसा इति मता ] सतत हिंसा मानी गई हैं ।
टीका -- अशुद्धोपयोग से ही छ ेद है, क्योंकि ( उससे ) शुद्धोपयोग रूप श्रामण्यका छ ेदन होता है, और वही (अशुद्धोपयोग हो ) हिंसा है, क्योंकि ( उससे ) शुद्धोपयोगरूप श्रम का हिंसन ( हनन ) होता है । इसलिये श्रमण के, जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होती ऐसी शयन आसन स्थान गमन- इत्यादि में अयत्नाचार चर्या (आचरण) वास्तव में उसके लिये सर्वकाल में (सदा ) ही धारावाही हिंसा ही है - जो कि छ ेद से कोई भिन्न वस्तु नहीं है || २१६॥
तात्पर्यवृत्ति
अथ शुद्धोपयोगभावनाप्रतिबन्धकछेदं कथयति -
मदा मता सम्मता | का? हिंसा शुद्धोपयोगलक्षणश्रामण्यछेदकारणभूता हिंसा । कथंभूता ?
१. संतत्तिय त्ति (ज० वृ० ) ।