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पवयणसारो ]
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अथवा निश्चय मूलगुण के आधार रूप परमात्म द्रव्य में उद्यत होता हुआ सर्वकाल आचरण करता है वह पूर्ण मुनि होता है। यहाँ यह भाव है कि जो निज शुद्धात्मा की भावना में रत होते हैं उन्हीं के पूर्ण मुनिपना हो सकता है ।।२१४॥
अथ श्रामण्यस्य छेदायतनत्वात् यतिजनासन्नः सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबन्धोऽपि प्रतिषेध्य इत्युपदिशति
भत्ते वा खवणे वा आवसधे वा पुणो विहारे वा। उवधिम्हि वा णिबद्धं णेच्छदि समणम्हि विकधम्हि ॥२१५।।
भक्ते वा क्षपणे वा आवसथे वा पुनविहारे बा ।
अनादीपा निगेति श्रमणे विकथायाम् ।।२१५।। श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरत्तिहेतुमात्रत्वेनादीयमाने भक्त तथाविधशरीरत्यविरोधेन शद्धात्मन्यनीरंगनिस्तरङ्गविश्रान्तिसूत्रणानुसारेण प्रवर्तमाने क्षपणे नौरंगनिस्तरंगान्तरंगद्रव्यप्रसिद्धयर्थमध्यास्यमाने गिरीन्द्रकन्दरप्रभताधावसथे यथोक्तशरीरवृत्तिहेतुमार्गणार्थमारभ्यमाणे विहारकर्मणि श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिध्यमाने केवलदेहमात्रे उपधौ अन्योन्यबोध्यबोधकभाषमात्रेण कथंचित्परिचिते श्रमणे शब्दपुद्गलोल्लाससवलनकश्मलितचिद्धित्तिभागायां शुद्धात्मध्यविरुद्धायां कथायां चतेष्वपि तद्विकल्पा चित्रितचित्तभित्तितया प्रतिषेध्यः प्रतिबन्धः ॥२१॥
भूमिका-अब, मुनिजन को निकट का सूक्ष्म परद्रव्य संबंध मी, श्रामण्य के छेद का आयतन होने से निषेध्य है, ऐसा उपदेश करते हैं
___ अन्वयार्थ-[भक्ते वा] मुनि आहार में, [क्षपणे वा उपवास में [आवसथे वा] निवास स्थान में [पुनः विहारे वा] और विहार में, [उपधौ] परिग्रह में, [श्रमणे] अन्य मूनि में |वा] अथवा [विकथायाम् ] विकथा में [निबद्धं] जड़ना, लगना, संलग्न होना [न इच्छति] नहीं चाहता।
टीका--(१) श्रामण्य पर्याय के सहकारी कारणभूत शरीर की स्थिति के हेतुमात्र से ग्रहण किये जाने वाले आहार में (२) अर्थात् शरीर के टिकने के साथ विरोध न आये इस प्रकार, शुद्धात्मद्रव्य में विकाररहित और तरंगरहित स्थिरता की रचना की जाय, तदनुसार प्रवर्तमान अनशन में (३) नीरंग और निस्तरंग अन्तरंग द्रव्य को प्राप्ति के लिये सेव्यमान गिरीन्द्रकन्दरादिक आवास में अर्थात् पर्वत की गुफा इत्यादि निवास स्थान में (४) यथोक्त शरीर स्थिति की कारणभूत शिक्षा के लिये विहारकार्य में (५) श्रामण्यपर्याय