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[ पवयणसारो भूमिका—अब, श्रामण्य की परिपूर्णता का आयतन होने से स्यद्रव्य में ही संबंध करना योग्य है, ऐसा उपदेश करते हैं
अन्वयार्थ-[यः श्रमणः जो श्रमण [नित्यं] सदा [ज्ञाने दर्शनमुखे] ज्ञान में और दर्शनादि में [निबद्धः] प्रतिबद्ध [च] तथा [मूलगुणेषु प्रयतः] मूलगुणों में प्रयत्नशील [चरति] विचरण करता है, [सः] वह [परिपूर्णश्रामण्यः] परिपूर्ण श्रामण्यवान है ।
टीका-एक स्वद्रव्य से संबंध हो, उपयोग का मार्जन करने वाला है, अतः माजित उपयोगरूप श्रामण्य की परिपूर्णता का आयतन है, उसके सद्भाव से ही यतिधर्म परिपूर्ण होता है।
इसलिये सदा ज्ञान में और दर्शनादिक से संबंध रखकर मूलगुणों में प्रयत्नशीलता से विचरना, ज्ञानदर्शन स्वभाव में शुद्धात्मद्रव्य प्रतिबद्ध-शुद्ध अस्तित्वमात्ररूप से अर्थात् रागामि रहित उपयोग वर्तना, यह तात्पर्य है ॥२१४॥
तात्पर्यवृत्ति अथ श्रामण्यपरिपूर्णकारणत्वात्स्वशुद्धात्मद्रव्ये निरन्तरमवस्थानं कर्तव्यमित्याख्याति
चरदि चरति वर्तते । कथंभूतः ? णिबद्धो अधीनः पिच्चं नित्यं सर्वकालं । स कः कर्ता ? समणो लाभालाभादिसमचित्तश्रमणः । क्व निबद्धः ? णाणम्मि वीतरागसर्वज्ञप्रणीतपरमागमज्ञाने तत्फलभूतस्वसंवेदनज्ञाने बा दंसणमुहम्मि दर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानं तत्फलभूतनिजशुद्धोत्मोपादेयरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वं वा तत्प्रमुखेष्वनन्तसुखादिगुणेषु पयवो मूलगुणेसु य प्रणतः प्रयत्लपरश्च । केषु ? मूलगुणेषु निश्चयमूलगुणाधारपरमात्मद्ध्ये वा जो सो पडिपुष्णसामण्णो य एवं गुणविशिष्टश्रमणः सः परिपूर्णधामण्यो भवतीति । अयमत्रार्थ:-निजशुद्धात्मभावनारतानामेव परिपूर्णधामण्यं भवतीति ॥२१४||
उत्थानिका—आगे कहते हैं कि मुनिपद की पूर्णता के हेतु से साधु को अपने शुद्ध आत्मद्रव्य में सदा लीन होना योग्य है ।
__ अन्वय सहित विशेषार्थ---(जो समणो) जो मुनि (दसणमुहम्मि णाणम्मि) सम्यादर्शन को मुख्य लेकर सम्परज्ञान में (णिच्चं णिबद्धो) नित्य उनके अधीन होता हुआ (य मूलगुणेसु पयदो) और मूलगुणों में प्रयत्न करता हुआ (चरदि) आचरण करता है (सो पडिपुग्णसामण्णो) वह पूर्ण यति हो जाता है। जो लाभ अलाभ आदि में समान चित्त को रखने वाला श्रमण तत्त्वार्थ श्रद्धान और उसके फलस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन में जहां एक निज शुद्धात्मा ही ग्रहण करने योग्य है ऐसी रुचि होती है तथा वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए परमागम के ज्ञान में और उसके फलरूप स्वसंवेदन ज्ञान में तथा अट्ठाईस मूलगुणों में