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[ पवयणसारो
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लिंग ग्रहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जादायगो होदि । छेदेसुवट्ठवगा सेसा णिज्जावगा समणा ॥ २१०॥ लिङ्गग्रहणे तेषां गुरुरिति प्रव्रज्यादायको भवति । छेदयोरुपस्थापकाः शेषा नियपिकाः श्रमणाः ।। २१० ॥
यतो लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्प सामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन यः किलाचार्यः प्रव्रज्या दायकः सः गुरुः यः पुनरनन्तरं सविकल्पच्छेदोपस्थापनसंयमप्रतिपादकत्वेन छंद प्रत्युपस्थापक स निर्धापकः, योऽपि छिन्नसंयमप्रतिविधानसंधानप्रतिपादकत्वेन छेवे सत्युपस्थापकः सोऽ निर्यापक एव, ततश्छेदोपस्थापकः परोऽप्यस्ति ॥ २९० ॥
भूमिका – अब इनके ( श्रमण के ) प्रव्रज्यादायक की भांति छेदोपस्थापक प ( दूसरा ) भी होता है यह, आचार्य के भेदों के प्रज्ञापन द्वारा उपदेश करते हैंअन्वयार्थ - [ लिगग्रहणे | लिंगग्रहण के समय [ प्रवज्यादायकः भवति | जो प्रव्रज्य (दीक्षा) दायक हैं वह [त गुरुः इव] उनके गुरु हैं और [छेदयोः उपस्थापकाः ] जं छेदद्वय में उपस्थापक हैं (अर्थात् १ - जो भेदों में स्थापित करते हैं तथा २ - जो संयम में छेद होने पर पुनः स्थापित करते हैं ) [ शेषाः श्रमणाः ] वे श्रमण [ निर्यापकाः ] निर्यापक हैं टीका - लिंग ग्रहण के समय जो आचार्य अभेद - सामायिकसंयम के प्रतिपादन
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द्वारा प्रवज्यादायक हैं वे गुरु हैं, और तत्पश्चात् तत्काल हो जो (आचार्य) भेदरूप छेदो पस्थापना संयम के प्रतिपादक होने से छेद के प्रति उपस्थापक ( भेद में स्थापित करने वाले) हैं वे निर्यापक हैं, उसी प्रकार जो आचार्य संयम के छेद होने पर पुनः निर्दोष संयम को प्राप्त करने की विधि के प्रतिपादक होने से छेद होने पर उपस्थापक (संग्रम मे छेद होने पर उसमें पुनः स्थापित करने वाले ) हैं, वे भी निर्यापक ही हैं। इसलिये छेदो पस्थापक अन्य आचार्य भी होते हैं ॥ २१० ॥
तात्पर्यवृत्ति
अथास्य तपोधनस्य ज्यादायक इवान्योऽपि निर्यापकसंज्ञो गुरुरस्ति इति गुरुव्यवस्थां निरूपयति---
गिग सिलिङ्गग्रहणे तेषां तपोधनानां गुरुन्ति होदि गुरुर्भवतीति । स कः ? परवडजदायगो निर्विकल्पसमाधिरूप परमसामायिकप्रतिपादको योऽसौ प्रवज्यादायक: स एव दीक्षागुरुः छेदेसु अट्ठा देश संकल रुपयोद्विधां छेदयोश्च वर्तका: ये सेसा विज्जावगा समणा ते शेवाः श्रमणा निर्यापिका भवन्ति शिक्षागुरवश्च भवन्तीति । अयमत्रार्थः - निर्विकल्पक समाधिरूपसामायिकस्यैकदेशेन
१. छेदेषु अवगा (ज० ० ) ।