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पवयणसारो ]
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अन्वय सहित विशेषार्थ - ( वदसमिदि वियरोधो ) पाँच महाव्रत, पाँच इन्द्रियों का निरोध (लोचावस्सयं) केशलोंच, छः आवश्यक कर्म ( अचेल मण्हाणं ) नग्नपना, स्नान न करना, (खिदिसयणमदंतवणं ) पृथ्वी पर सोना, दन्तवन ( दांतुन ) न करना (ठिदिभोयणमेयभत्तं घ) खड़े हो भोजन करना, और एक बार भोजन करना (एदे ) ये (समणाणं मूलगुणा ) साधुओं
अट्ठाईस मूलगुण ( खलु ) वास्तव में ( जिणवरेहि पण्णत्ता) जिनेन्द्रों ने कहे हैं ( तेसु पमत्तो) इन मूलगुणों में प्रमाद करने वाला ( श्रमणा ) साधु ( छेदोवट्ठावगो) छेदोपस्थापक ( होदि ) होता है। निश्चयनय से मूल नाम आत्मा का है उस आत्मा का है उस आत्मा के केवलज्ञानादि अनंतगुण मूलगुण हैं। ये सब मूलगुण उस समय प्रकट होते हैं जब भेद-रहित समाधिरूप परमसामायिक निश्चय एक व्रत के द्वारा (जो मोक्ष का बीज है) मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इसी कारण से वही सामायिक आत्मा के केवलज्ञानादि मूलगुणों को प्रगट करने के कारण होने से निश्चय मूलगुण है । जब यह जीव अभेवरूप समाधि में (सामायिकचारित्र में ठहरने को समर्थ नहीं होता है तब भेदरूप चारित्र को ग्रहण करता है, चारित्र का सर्वथा त्याग नहीं करता, जैसे कोई भी सुवर्ण का चाहने वाला पुरुष स्वर्ण को न पाता हुआ उसकी कुण्डल आदि अवस्था विशेषों को ही ग्रहण कर लेता है, सर्वथा स्वर्ण का त्याग नहीं करता है । तसे यह जीव भी निश्चय मूलगुण नामकी परमसमाधि अर्थात् अभेद सामायिकचारित्र का लाभ न होने पर छेदोपस्थापना नाम अर्थात् भेदरूप चारित्र को ग्रहण करता है । छेद होने पर फिर स्थापन करना छेदोपस्थापना है । अथवा छेब से अर्थात् तों के मेद से चारित्र को स्थापन करना सो छेदोपस्थापना है । वह छेदोपस्थापना संक्षेप में पांच महाव्रत रूप है। उन्हीं व्रतों की रक्षा के लिये पांच समिति आदि के भेद से उसके अट्ठाईस मूलगुण भेद होते हैं। उन ही मूलगुणों की रक्षा के लिये २२ परिषहों का जीतना व १२ प्रकार तपश्चरण करना ऐसे चौंतीस उत्तरगुण होते हैं । इन उत्तर गुणों के लिये देव, मनुष्य, तिर्यञ्च व अचेतन कृत चार प्रकार के उपसर्ग का जीतना व बारह भावनाओं का भावन करना आदि कार्य किये जाते हैं ॥२०८ - २०६ ॥
इस तरह मूल और उत्तरगुणों को कहते हुए दूसरे स्थल में दो सूत्र पूर्ण हुए। अथस्य प्रव्रज्यादायक इव छेदोपस्थापकः परोऽप्यस्तीत्याचार्यविकल्पप्रज्ञापनद्वारे
गोपविशति