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पवयणसारो ..]
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(अणभवकारणं) मोक्ष का कारण ऐसा (लिंग) मुनि का भाव लिंग (जोण्ह) जिनेन्द्र ने कहा है । जैन साधु का लिग या शरीर का चिन्ह पांच विशेषण सहित जानना चाहिये (१) पूर्व गाथा में कहे प्रमाण निग्रन्थ परिग्रह रहित नग्न होता है (२) मस्तक के और डाढो मूछों के शृंगार सम्बन्धी रागादि दोषों के हटाने के लिये सिर व डाढ़ी मूछों के केशों को उपाड़ने से होता है (३) पाप रहित अर्थात चैतन्य चमत्कार के विरोधी सर्व पाप योगों से रहित शुद्ध होता है (४) शुद्ध चैतन्यमयी निश्चय प्राण की हिंसा के कारणभूत रागादि परिणतिरूप निश्चय हिंसा के अभाव से हिंसादि रहित होता है (५) परम उपेक्षा संयम के बल से देह के संस्कार रहित होने से श्रृंगार रहित होता है । इसी तरह जैन साधु के भालिग के भी पांच विशेषण हैं। (१) परद्रव्य की इच्छा व मोह से रहित परमात्मा को ज्ञान ज्योति से विरुद्ध बाहरी द्रव्यों में ममता बुद्धि को मूर्छा कहते हैं तथा मन वचन काय के व्यापार से रहित चैतन्य चमत्कार के प्रतिपक्षी व्यापार को आरम्भ कहते हैं । मूर्छा और आरम्भ इन दोनों से रहित होता है (२) विकार रहित स्वसंवेदन लक्षण-धारी उपयोग और निर्विकल्प समाधिमयी योग इन दोनों की शुद्धि सहित होता है (३) निर्मल आत्मानुभव की परिणति होने से परद्रव्य की सहायता रहित होता है (४) बार-बार जन्म धारण को नाश करने वाले शुद्ध आत्मा के परिणामों के अनुकूल पुनर्भवरहित मोक्ष का कारण होता है (५) जिन भगवान सम्बन्धी अथवा जैसा जिनेन्द्र ने कहा है वैसा होता है। इस तरह जैन साधु के द्रव्य और भाव लिंग का स्वरूप जानना चाहिये ॥२०५-२०६॥
अर्थतदुभयलिंगमायायैतदेतत्कृत्वा च श्रमणो भवतीति भवतिक्रियायां बन्धुवर्गप्रच्छनक्रियाविशेषसकलक्रियाणां चककत कत्वमुद्योतयन्नियता श्रामण्यप्रतिपत्तिर्भवतीत्युपविशति
"आदाय तं पि लिंगं गुरुणा परमेण तं णमंसित्ता। सोच्चा सवदं किरयं उवट्ठिदो होदि सो समणो ॥२०७॥
आदाय तदपि लिंग गुरुणा परमेण तं नमस्कृत्य ।
श्रुत्वा सव्रतां क्रियामुपस्थितो भवति स श्रमणः ॥२०७।। ___ ततोऽपि श्रमणो भवितुमिच्छन् लिंगद्धतमादत्ते गुरु नमस्यति व्रक्रिये शृणोति अथोपतिष्ठते; उपस्थितश्च पर्याप्तश्रामण्यसामग्रीकः श्रमणो मवति । तथाहि-तत इदं यथाजातरूपधरत्वस्य पमकं बहिरङ्गमन्तरंगमपि लिंग प्रथममेव गुरुणा परमेणाह.भट्टारकेण तदात्वे च दीक्षाचार्येण तदादानविधानप्रतिपादकत्वेन व्यवहारतो दीयमानत्वात्तमादान