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[ पवयणसारो क्रियया संभाव्य तन्मयो भवति । ततो भाव्यभावकभावप्रवृत्तेतरेतरसंवलनप्रत्यस्तमितस्वपरविभागत्वेन दत्तसर्वस्वमूलोत्तरपरमगुरुनमस्क्रियया संभाव्य भावस्तववन्दनामयो भवति ततः सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानलक्षणकमहावतश्रवणात्मना श्रुतज्ञानेन समये भवन्तमात्मानं जानन् सामायिकमधिरोहति । ततः प्रतिक्रमणालाचनप्रत्याख्यानलक्षणक्रियाश्रवणात्मना श्रुतज्ञानेन कालिककर्मभ्यो विविध्यमानमात्मानं जानन्नतीतप्रत्युपन्नानुपस्थितकायबाङमनःकर्म विविक्तत्वमधिरोहति । ततः समस्तावद्यकर्मायतनं कायमुत्सृज्य यथाजातरूपं स्वरूपमेकमेकाग्रेणालम्ब्य व्यवतिष्ठमान उपस्थितो भवति, उपस्थितस्तु सर्वत्र समदृष्टित्वात्साक्षाच्छ मणो भवति ।।२०७।।
___ भूमिका-अब (श्रामण्यार्थी) इन दोनों लिंगों को ग्रहण करके, और इतना-इतना करके श्रमण होता है, इस प्रकार योग्य क्रिया में बन्धुवर्ग से विदा लेने रूप क्रिया से लेकर शेष सभी क्रियाओं का एक कर्ता दिखलाते हुए, इतना करने से श्रामण्य की प्राप्ति होती है, यह उपदेश करते हैं
अन्वयार्थ-[परमेण गुरुणा] परम गुरु के द्वारा प्रदत्त [तदपि लिंगम्] उन दोनों लिगों को [आदाय] ग्रहण करके, [तं नमस्कृत्य] उन्हें नमस्कार करके, [सवतां क्रियां श्रुत्वा] व्रत सहित क्रिया को सुनकर [उपस्थितः] उपस्थित (प्रतिक्रमण आदि द्वारा उपस्थित होता हुआ) [सः] वह [श्रमणः भवति] श्रमण होता है। --~
___टीका तत्पश्चात् श्रमण होने का इच्छुक दोनों लिंगों को ग्रहण करता है, गुरु को नमस्कार करता है, वत तथा क्रिया को सुनता है और उपस्थित होता है तथा उपस्थित होता हुआ यतिधर्म को पर्याप्त सामग्री पर्याप्त परिपूर्ण (होने) से श्रमण होता है। वह इस प्रकार से कि
प्रथम ही परमगुरु अरहंत भट्टारक और तत्कालीन दीक्षाचार्य के द्वारा लिंग के ग्रहण की विधि के प्रतिपादक-पने से व्यवहार अपेक्षा दिये जाने से दिये हुए इस यथाजातरूपधरत्व के सूचक बहिरङ्ग तथा अन्तरङ्गलिग को (यह श्रमणार्थी) ग्रहण करने के द्वारा आवर करके उस लिंग से तन्मय होता है। तत्पश्चात् जिन्होंने सर्वस्व दिया (मुनिदीक्षा सम्बन्धी सब कुछ दिया है) ऐसे मूलगुरु (अरहंत) और उत्तरगुरु (दीक्षाचार्य) को भाथ्यभावक भाव से प्रवर्तित इतरेतर (परस्पर मिलने के कारण) जिसमें स्व-परका भेद अस्त हो गया है, ऐसी नमस्कार क्रिया के द्वारा संभावित (सम्मानित) करके भाव स्तुतिमय तथा भाव बदनामय होता है। [श्री अरहंत देव ने मुनिदीक्षा की विधि का प्रतिपादन