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[ पवयणसारो
उनके सद्भाव में होते हैं ऐसे जो ( १ ) ममत्व और कार्य व्यवस्था (कर्मप्रक्रम) के परिणाम, ( २ ) शुभाशुभ उपरक्त उपयोग और तत्पूर्वक तथाविध योग की अशुद्धि से युक्तता तथा (३) परद्रथ्य से सापेक्षत्य, इन तीनों का अभाव होता है, इसलिये उस मुनि के (१) मूर्छा और आरम्भ से रहितता, (२) उपयोग और योग की शुद्धि से युक्तता, (३) तथा पर को अपेक्षा से रहितता होती है। इसलिये यह अंतरंग लिंग है ।।२०५- २०६ ।।
तात्पर्यवृत्ति
अथ तस्य पूर्वसूत्रोदितयथाजातरूपधरस्य निर्ग्रन्थस्यानादिकालदुर्लभायाः स्वात्मोपलब्धिलक्षणसिद्धेमकं चिन्हं बाह्याभ्यन्तरलिङ्गद्वयमादिशति
जधजादरूवजादं पूर्वसूत्रोक्तलक्षणयथाजातरूपेण निर्ग्रन्थत्वेन जातमुत्पन्नं यथाजातरूपजातम् उपासिमंसुगं केशश्मसंस्कारोत्पन्नरागादिदोपवर्जनार्थं मुत्पाटितकेशश्मश्रुकंम् । सुद्धं निरवद्यचैतन्यचमत्कारविसदृशेन सार्बसावद्ययोगेन रहितत्वाच्छुद्धम् । रहिदं हिंसादीदो शुद्धचैतन्यरूपनिश्चयप्राणहिंसाकारणभूताया रागादिपरिणतिलक्षणनिश्चर्याहसाया अभावात् हिंसादिरहितम् अप्पडिकम्मं हवदि परमोपेक्षासंयमबलेन देहप्रतिकार रहितत्वादप्रतिकर्म भवति । किं ? लिगं एवं पञ्चविशेषणविभिष्टं लिङ्ग द्रव्यलिङ्ग ज्ञातव्यमिति प्रथमगाथा गता । मुच्छारंभ विमुक्कं परद्रव्यकांक्षारहितनिर्मोहपरमात्मज्योतिर्विलक्षणा बाह्यद्रव्ये ममत्वबुद्धिर्भूर्च्छा भण्यते मनोवाक्कायव्यापाररहितचिच्चमत्कार प्रतिपक्षभूत आरम्भो व्यापारस्ताभ्यां मूर्च्छारम्भाभ्यां विमुक्त मूर्च्छारम्भविमुक्तम् जुतंउवजोग जोगसुद्धीहिं निर्विकारस्वसंवेदनलक्षण उपयोगः निर्विकल्पसमाधिर्योगः तयोरुपयोगयोगयोः शुद्धिया युक्तः ण परावेक्खं निर्मलानुभूतिपरिणते परस्थ परद्रव्यस्यापेक्षया रहितम् न परोपक्षम् अणभवकारणं पुनर्भवविनाशक शुद्धात्म परिणामात्रपरीतापुनर्भवस्त्र मोक्षस्य कारणमपुनर्भवकारणम् । जोहं जिनस्य सम्बन्धीदं जिनेन प्रोक्त बा जैनम् । एवं पंचविशेषणविशिष्टं भवति । कि? लिंग भावलिङ्गमिति । इति द्रव्यलिङ्गभावलिङ्गस्वरूपं ज्ञातव्यम् ।।२०५ - २०६॥
उत्थानिका— आगे यह उपदेश करते हैं कि पूर्व सूत्र में कहे प्रमाण यथाजातरूपधारी निग्रंथ को अनादि काल में भी दुर्लभ, ऐसी निज आत्मा की प्राप्ति होती हैं। इसी स्वात्मोपलब्धिलक्षण को बताने वाले चिन्ह उनके बाहरी और भीतरी दोनों लिंग होते हैंअन्वय सहित विशेषार्थ - ( लिंग ) मुनि का द्रव्य या बाहरी चिन्ह (जधजादरूवजावं) जैसा परिग्रह रहित नग्नस्वरूप होता है वैसा होता है (उप्पाडिय के समं सुगं ) जिसमें सिर और डाढ़ी के बालों का लोच किया जाता है ( सुद्धं ) जो निर्मल परिग्रह से रहित और (हिंसादोदो रहिदं) हिंसादि पापों से रहित तथा (अध्यक्रिम्मं ) शृंगार रहित (हवदि) होता है । तथा (मुच्छारम्भविमुक्के) ममता आरम्भ करने के भाव से रहित तथा ( उबजोगजोगसुद्धीहिजुत्तं ) उपयोग और ध्यान की शुद्धि सहित (परावेक्खं ग ) परद्रध्य की अपेक्षा रहित