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पवयणसारो ]
[ ४८५ टीका-पश्चात् मुनि दीक्षा लेने वाला प्रणाम करता है और आचार्य द्वारा ग्रहण किया आता है । वह इस प्रकार है कि आचरण करने में और आचरण करने में आने वाली समस्त विरति की प्रवृत्ति के समान आत्मरूप ऐसे यतिधर्म का कारण जो "श्रमण' है, ऐसे यतिधर्म आचरण करने में और आचरण कराने में प्रवीण होने से जो 'गुणाढच' है, सर्वलौकिकजनों के द्वारा नि:शंकतया सेवा करने योग्य होने से और कुलक्रमागत क्रूरतावि दोषों से रहित होने से जो 'कुलविशिष्ट' है, अंतरंग-शुद्धरूप का अनुमान कराने वाला ऐसा बहिरंग-शुद्धरूप होने से जो 'रूपविशिष्ट' है, बालकत्व और वृद्धत्व से होने वाली बुद्धिविषलवता का अभाव होने से तथा यौवनोब्रेक के विकार रहित बुद्धि होने से जो 'वय विशिष्ट' है, पूर्ण यथोक्त यतिधर्म के चारित्र को आचरण करने सम्बन्धी पौरुषेय बोषों को (जिन दोषों का पुरुष के द्वारा लगना सम्भव है) के कारण नष्ट (प्रायश्चित्तादि के लिये) जिनका बहुआश्रय लेते हैं इसलिये जो 'श्रमणों को अति इष्ट' है; ऐसे गणी के निकट-शुद्धात्मतत्व की उपलब्धि के साधक आचार्य के निकट-'शुद्धात्म तत्व की उपलब्धि सिद्धि के लिये मुझे ग्रहण करों' ऐसा कहकर (श्रामण्यार्थी) नमस्कार करता है। इसप्रकार यह तुझे शुद्धात्मतत्व की उपलब्धि रूप सिद्धि' हो ऐसा (कहकर) यह गणी उस मुनिदीक्षा लेने वाले को प्रार्थित अर्थ से संयुक्त करते हैं, अनुगृहीत करते हैं अर्थात् यतिधर्म को दीक्षा देते हैं ॥२०॥
तात्पर्यवृत्ति अथ जिनदीक्षार्थी भन्यो जैनाचार्यमाश्रयति ;
समणं निन्दाप्रशंसादिसमचित्तत्वेन पूर्वसूत्रोदितनिश्चयव्यवहारपञ्चाचारस्य चरणाचारणप्रवीणत्वात् श्रमणम् । गुण चतुरणीतिलक्षगुणाष्टादशसहस्रशीलसहकारिकारणोत्तमनिजशुद्धात्मानुभूतिगुणेनाढ्य भूतम् परिपूर्णत्वाद्गुणाढ्यम् । कुलस्ववयोविसिळं लोकदुगुच्छारहितत्वेन जिनदीक्षायोग्यं कुल भण्यते । अन्तरङ्गशुद्धात्मानुभूतिरूपकं निग्रंथनिर्विकारं रूपमुच्यते । शुद्धात्मसंवित्तिविनाशकारिवृद्धवालयौवनोद्रेकजनितबुद्धिय कल्यरहितं धयश्चेति तैः कुलरूपवयोभिविशिष्टत्वात्कुलरूपवयोविशिष्टम् । इट्ठदरं इष्टतरं सम्मतम् कः ? समहि निजपरमात्मतत्त्वभावनासहितसमचित्तश्रमणरन्याचार्यः गणि एवंविधगुणविशिष्टं, परमात्मभावनासाधकदीक्षादायकमाचार्यम् । तं पि पणदो न केबलतमाचार्यमाश्रितो भबति प्रणतोऽपि भवति । केन रूपेण ? पजिच्छ म हे भगवन् अनन्तज्ञानादिनिजगुणसम्पत्तिकारणभूताया अनादिकालेऽत्यन्तदुर्लभाया भावसहितजिनदीक्षायाः प्रदानेन प्रसादेन मां प्रतीच्छ स्वीकुरु चेदि अणुगहिदो न केवलं प्रणतो भवति, तेनाचार्येणानुगृहीतः स्वीकृतश्च भवति । हे भव्य ! निस्सारसंसारे दुर्लभबोधि प्राप्य निजशुद्धात्मभावनारूपया निश्चयचतुर्विधाराधनया मनुष्यजन्म सफलं कुवित्यनेन प्रकारेणानुगृहीतो भवतीत्यर्थः ॥२०॥