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[ पवयणसारो नियम नहीं है कि क्षमा कराए बिना दीक्षा न लेवे । क्यों नियम नहीं है ? उसके लिये कहते हैं कि पहले काल में भरत, सगर, राम, पांडवादि बहुत से राजाओं ने जिनवीक्षा धारण की थी। उनके परिवार के मध्य में जब कोई भी मिथ्यावृष्टि होता था तब धर्म में उपसर्ग भी करता था तथा यदि कोई ऐसा माने कि बन्धुजनों को सम्मति करके पीछे तप करूगा तो उसके मत में अधिकतर तपश्चरण ही न हो सकेगा, क्योंकि जब किसी तरह से तप ग्रहण करते हए यदि अपने सम्बन्धी आदि से ममताभाव करे तब कोई तपस्वी ही नहीं हो सकता । जैसा कहा है
जो पहले सर्व नगर व राज्य छोड़ करके फिर समता करे वह मात्र भेषधारी है, संयम को अपेक्षा से रहित है अर्थात् संयमी नहीं है ॥२०२॥ अथातः कीदृशो भवतीत्युपविशति
समणं गणि गुणड्ढं कुलस्ववयोविसिट्ठमिट्ठदरं । समणेहि तं पि पणदो पडिच्छ में चेदि अणुगहिदो ॥२०३।।
श्रमण गणिनं गुणाढ्य कुलरूपवयोविशिष्टमिष्टतरम् ।
श्रमणैस्तमपि प्रणतः प्रतीच्छ मां चेत्यनुगृहीतः ।।२०३॥ ततो हि श्रामण्यार्थी प्रणतोऽनुगृहीतश्च भवति । तथाहि-आचरिताचारितसमस्तविरतिप्रवृत्तिसमानात्मरूपश्रामण्यत्वात् श्रमणं, एवंविधश्रामण्याचरणाचारणप्रवीणत्वात् गुणाढ्य, सकललौकिकजननिःशसेवनौयत्वात् कुलक्रमागतक्रौर्याविदोषजितत्वाञ्च कुलविशिष्ट, अन्तरङ्गशुद्धरूपानुमापकबहिरङ्गशुद्धरूपत्वात् रूपविशिष्ट, शंशववार्धक्यकृतबुद्धिविक्लवत्वाभावाद्यौवनोद्रेकविक्रियाविविक्तबुद्धित्वाच्च पयोविशिष्टं, निःशेषितयथोक्तश्रामण्याचरणाचारणविषयपौरुषेयवोषत्वेन मुमाभिरभ्युपगततरत्वात् श्रमर्णरिष्टतरं च गणिनं शुद्धात्मतत्योपलम्भसाधकमाचार्य शुद्धात्मतत्वोपलम्भसिद्धधा मामनुगृहाणेत्युपसर्पन प्रणतो भवति । एवमियं ते शुद्धात्मतत्वोपलम्भसिद्धिरिति तेन प्राथितार्थेन संयुज्यमानोऽनुगृहीतो भवति ॥२०३॥
भूमिका-इसके बाद वह मुनि होने का इच्छुक व्या करता है, इसका उपदेश करते हैं
__ अन्वयार्थ-[श्रमण] जो श्रमण है, [गुणाढ्य ] गुणाढ्य है, [कुलरूपवयो विशिष्टं] कुल, रूप तथा वय से विशिष्ट है, और [श्रमणः इष्टतरं] श्रमणों को अति इष्ट है [तम् अपि गणिनं] ऐसे गणी को [ माम् प्रतीच्छ इति] 'मुझे स्वीकार करो' ऐसा कहकर [प्रणतः] प्रणाम करता है [च] और [अनुगृहीतः] आचार्य द्वारा ग्रहण किया जाता है ।
१. समणेहिं (ज० वृ०)।