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पचयणसारो ]
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निश्चयेन
तराचारप्रवर्तक स्वशक्त्यनिग्रहनलक्षणदीर्याचार, न शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमात्मानमुपलभे । एवं ज्ञानदनचारित्रतपोवीर्याचारमासोदति च ॥ २०२ ॥
भूमिका – अब, श्रमण होने का इच्छुक पहले क्या-क्या करता है, उसका उपदेश करते हैं
अन्वयार्थ - श्रामण्यार्थी [ बन्धुवर्गम् आपृच्छच ] बंधुवर्ग से पूछकर [ गुरुकलत्रपुत्रः विमोचितः ] बड़ों से तथा स्त्री और पुत्र से मुक्त होता हुआ [ज्ञानदर्शन चारित्रतपोवीर्याचारम् आसाद्य ] ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपआचार और वीर्याचार को अंगीकार करके विरक्त होता है ।
टीका - जो मुनि होना चाहता है पहले ही बंधुवर्ग से (सगे-सम्बन्धियों से ) पूछता है, गुरुजनों (बड़ों) से तथा स्त्री और पुत्रों से अपने को छुड़ाता है, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपआचार तथा वीर्याचार को अंगीकार करता है । वह इस प्रकार है
बंधुवर्ग से इस प्रकार कहता है-अहो ! गुरुष के शरीर के बंधुवर्ग में प्रवर्तमान आत्माओ ! इस पुरुष का मेरा आत्मा किचित्मात्र भी तुम्हारा नहीं है - इस प्रकार तुम निश्चय से जानो । इसलिये मैं तुमसे शिवा लेता हूँ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह मेरा आत्मा आज अपने आत्मारूपी अपने अनादिबंधु के पास जा रहा है ।
अहो ! इस पुरुष के शरीर के जनक (पिता) के आत्मा ! अहो इस पुरुष के शरीर की जननी माता के आत्मा ! इस पुरुष का मेरा आत्मा तुम्हारे द्वारा जनित ( उत्पन्न ) नहीं है, ऐसा तुम निश्चय से जानो । इसलिये तुम इस आत्मा को छोड़ो। जिसे ज्ञान ज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह मेरा आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादिजनक के पास जा रहा है ।
अहो ! इस पुरुष के शरीर की रमणी (स्त्री) के आत्मा ! तु इस पुरुष के मेरे आत्मा को रमण नहीं कराता, ऐसा तु निश्चय से जान। इसलिये तू इस आत्मा को छोड़ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह मेरा आत्मा आज अपनी स्वानुभूति रूपी अनादिरमणी के पास जा रहा है।
अहो ! इस पुरुष के मेरे शरीर के पुत्र के आत्मा ! तू इस पुरुष के मेरे आत्मा का जन्य ( उत्पन्न किया गया पुत्र) नहीं है, ऐसा तू निश्चय से जान । इसलिये तु इस आत्मा को छोड़ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह मेरा आत्मा आज आत्मारूपी अपने