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पत्रयणसारो ।
[ ४५५ (इष्ट-अनिष्ट सामग्री) [वा अथ] अथवा [शत्रुमित्रजनाः] शत्रुमित्रजन (यह कुछ) [जीवस्य] जीव के [ध्र वाः न सन्ति] ध्रुव नहीं हैं, [ध वः] ध्रुव तो [उपयोगात्मकः आत्मा] उषयोगात्मक आत्मा है।
___टीका-जो परद्रव्य से अभिन्न होने के कारण और परद्रव्य के द्वारा उपरक्त' होने वाले स्वधर्म से भिन्न होने के कारण आत्मा को अशुद्धि का कारण है ऐसा-आत्मा से अन्य (भिन्न)-कोई भी प्रव नहीं है, क्योंकि वह असत्' और हेतुमान् होने से आदि अन्त बाला और परतः सिद्ध है ध्र व तो उपयोगात्मक शुद्ध आत्मा ही है। ऐसा होने से मैं उपलभ्यमान अध्र व शरीरादि को प्राप्त नहीं करता, और ध्रुव शुद्धात्मा को प्राप्त करता हूँ।१६३॥
तात्पर्यवृत्ति अथात्मनः पृथग्भूतं देहादिकमध्रुवत्वान्न भावनीयमित्याख्याति
ण संति धुवा वा अविनश्वरा नित्या न सन्ति । कस्य ? जीवस्स जीवस्य । के ते ? देहा वा दक्षिणा वा देहा वा द्रव्याणि वा सर्वप्रकारशुचीभूताद्देहरहितात्परमात्मनो विलक्षणा औदारिकादिपञ्चदेहास्तथैव च पञ्चेन्द्रियभोगोपभोगसाधकानि परद्रव्याणि च । न केवलं देहादयो ध्रुबा न भवन्ति सुहदुक्खा धा निर्विकारपरमानन्दैकलक्षणस्वात्मोत्थसुखामृतविलक्षणानि सांसारिकसुखदुःखानि वा। अध अहो भव्याःसत्तुमित्तजणा शत्रुमित्रादिभावरहितादात्मनो भिन्नाः शत्रुमित्रादिजनाश्च । यद्येतत्सर्वमध्रुवं तहि कि ध्रुवमिति चेत् ? धुवो ध्रुवः शाश्वतः । स कः ? अप्पा निजात्मा। किविशिष्टः ? उवओगप्पगो त्रैलोक्योदरबिवरवर्तित्रिकालविषयसमस्तद्रव्यगुणपर्याययुगपत्परिच्छित्तिसमर्थकेवलज्ञानदर्शनोपयोगात्मक इति । एवमध्रुवत्वं ज्ञात्वा ध्रुवस्वभावे स्वात्मनि भावना कर्त्तव्येति तात्पर्यम् ।।१३।।
एवमशुद्धनयादशुद्धात्मलाभो भवतीति कथनेन प्रथमगाथा। शुद्धनयाच्छुद्धात्मलाभो भवतीति कथनेन द्वितीया । ध्रुवत्वादात्मव भावनीय इति प्रतिपादनेन तृतीया । आत्मनोऽन्यद्धबं न भावनीयमिति कथनेन चतुर्थी चेति शुद्धात्मव्याख्यानमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् ।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि ये शरीरादि आत्मा से भिन्न विनाशीक हैं इसलिये इनकी चिन्ता न करनी चाहिये ।
__अन्वय सहित विशेषार्थ-(जीवस्स) जीव के (देहा) शरीर (था दविणा) या द्रव्य (वा सुहबुक्खा) या सांसारिक सुखदुःख (वाऽध सत्तुमित्तजणा) तथा शत्रु मित्र आदि मनुष्य (धुवा ण संसि) ध्रुव नहीं हैं। (उवओगप्पगो अप्पा) केवल उपयोगमयी आत्मा (धुवो)
१. उपरक्त-मलिन, विकारी [परद्रव्य के निमित्त से आत्मा का स्वधर्म उपरक्त होता है ।] २-असत्अस्तित्वरहित (अनित्य) [धन देहादिक पुद्गल पर्यायें हैं, इसलिये असत् हैं, इसीलिये आदि-अन्त वाली हैं।] ३-हेतुमान्-सहेतुक; जिसकी उत्पत्ति में कोई भी निमित्त हो ऐसा। देह धनादि की उत्पत्ति में कोई भी निमित्त होता है, इसलिये वे परतः सिद्ध हैं। स्वतः सिद्ध नहीं।]