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पक्यणसारो ।
[ ४६७ इस तरह केवली भगवान क्या ध्यात व क्यों ध्यात हैं। इस प्रश्न को मुखपता से पहली गाथा, तथा वे भगवान परमसुख को ध्याते या अनुभवते हैं इस तरह उस प्रश्न का समाधान करते हुए दूसरी: इस तरह ध्यान-सम्बन्धी पूर्व पक्ष के परिहार रूप से तीसरे स्थल में दो गाथाएं पूर्ण हुई।
अथायमेव शुद्धात्मोपलम्भलक्षणो मोक्षस्य मार्ग इत्ययवारयति--
एवं जिणा जिणिदा सिद्धा मग्गं समुट्ठिदा समणा । जादा णमोत्थु तेसि तस्स य णिव्वाणमग्गस्स ॥१६६।।
एवं जिना जिनेन्द्राः सिद्धा मार्ग समुत्थिता श्रमणाः ।
जाता नमोऽस्तु तेभ्यस्तस्मै च निर्वाणमार्गाय ॥१६॥ यतः सर्व एव सामान्यचरमशरीरास्तीर्थकराः अचरमशरीरा मुमुक्षवश्चामुनव यथोदितेन शुद्धात्मतत्वप्रवृत्तिलक्षणेन विधिना प्रवृत्तमोक्षस्य मार्गमधिगम्य सिद्धा बभूवः, न पुनरन्यथापि । ततोऽवधार्यते केवलमयमेक एच मोक्षस्य मार्गों न द्वितीय इति । अलंच प्रपञ्चेन । तेषां शुद्धात्मतत्त्वप्रवृत्तानां सिद्धानां तस्य शुद्धात्मतत्वप्रवृत्ति रूपस्य मोक्षमार्गस्य च प्रत्यस्तमितभाव्यभावकविभागत्वेन नोआगमभावनमस्कारोऽस्तु । अवधारितो मोक्षमार्गः कृत्यमनुष्ठीयते ॥१६॥
भूमिका-अब यह निश्चय करते हैं कि-'यही (पूर्वोक्त हो) शुद्ध आत्मा की उपलब्धि जिसका लक्षण है, ऐसा मोक्ष का मार्ग है'---
___ अन्वयार्थ----[जिनाः जिनेन्द्राः श्रमणाः] जिन, जिनेन्द्र और श्रमण (अर्थात् सामान्यकेवली, तीर्थकर और मुनि) [एवं] इस (पूर्वोक्त ही) प्रकार [मार्ग समुत्थिताः] मार्ग पर आरूढ़ होते हुए [सिद्धाः जाताः] सिद्ध हुए हैं। [तेभ्यः] उन सबको [च] और [तस्मै निर्वाणमार्गा] उसनिर्वाण मार्ग को [नमोऽस्तु] नमस्कार होवे।
टीका-क्योंकि, सभी सामान्य चरमशरीरी, तीर्थकर और अवरमशरीरी मुमुक्ष इसी यथोक्त शुद्धात्मतत्वप्रवृत्तिलक्षण विधि से प्रवर्तमान मोक्षमार्ग को प्राप्त करके सिद्ध हुये, किसी दूसरी विधि से नहीं, इसलिये निश्चित होता है कि केवल यह एक ही मोक्ष का मार्ग है, दूसरा नहीं। अधिक विस्तार से पूरा पढ़े। उस शुद्धात्मतत्व में प्रवर्ते हुये सिद्धों को तथा उस शुद्धात्मतत्व प्रत्ति रूप मोक्षमार्ग को, जिसमें से मान्य-भावक का (ध्येयध्याता का) विभाग अस्त हो गया है, ऐसा नोआगम भाव नमस्कार हो (इस प्रकार) मोक्षमार्ग निश्चित किया है, (और उसमें) प्रवृत्ति करते हैं ॥१६॥