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पवरणसारो ]
[ ४७७ सिद्धि है, यह जानकर कमों से (पापों से) अविरत तथा अन्य भी, द्रव्य से अविरुद्ध चरण का आचरण करो अर्थात् चारित्र का पालन करो।
इस प्रकार (श्रीमद् भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव इस आगामी गाथा के द्वारा) दूसरों को परण (चारित्र) के आचरण करने में योजित करते (जोड़ते) हैं।
[अब गाथा के प्रारम्भ करने से पूर्व उसकी संधि के लिये श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव ने पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करने के लिये जानतत्व-प्रज्ञापन अधिकार की प्रथम तीन गाथायें लिखी हैं।
भूमिका-अब, इस अधिकार की गाथा प्रारम्भ करते हैं--
अन्वयार्थ-[यदि दुःखपरिमोक्षम् इच्छति] यदि दु:खों से मुक्त होने की इच्छा है तो, [एवं] पूर्वोक्त प्रकार से (ज्ञानतत्व-प्रज्ञापन की प्रथम तीन गाथाओं के अनुसार) [पुनः पुनः] बारम्बार शिदन] सिहों को, जिवनभान महन्तों को तथा [श्रमणान् ] मुनियों को [प्रणम्य] नमस्कार करके [श्रामण्यं प्रतिपद्यताम्] यतिधर्म को अंगीकार करो।
टीका-जैसे दुःखों से मुक्त होने के लिये मेरी आत्मा ने अर्हन्तों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों तथा साधओं को वनात्मक नमस्कार करके विशुद्ध वर्शन ज्ञान प्रधान साम्यनामक जिस यति--मार्ग को, जिसको इस ग्रन्थ में कथित दो अधिकारों की रचना द्वारा कथन किया गया है, स्वयं अंगीकार किया है उसी प्रकार दूसरों का आत्मा भी, यदि दुःखों से मुक्त होने का इच्छुक है तो, उसे अंगीकार करो। उस यतिधर्म को अंगीकार करने का जो यथानुभूत मार्ग है उसकी प्रेरणा करने के लिये हम खड़े हुये हैं ॥२०१॥
तात्पर्यवृत्ति कार्य प्रत्यत्रैव ग्रन्थः समाप्त इति ज्ञातव्यम् । कस्मादिति चेत् ? 'उवसंपयामि सम्म' इति प्रतिशासमाप्तेः । अतः परं यथाक्रमेण सप्ताधिकनवतिगाथापर्यन्तं चूलिकारूपेण चारित्राधिकारव्याख्यानं प्रारभ्यते । ताबदुत्सर्गरूपेण चारित्रस्य संक्षेपव्याख्यानम् । तदनन्तरमपवादरूपेण तस्यैव चारित्रस्य विस्तरन्याख्यानम् । ततश्च श्रामण्यापरनाममोक्षमार्गव्याख्यानम् । तदनन्तरं शुभोपयोगव्याख्यानमित्यन्तराधिकारचतुष्टयं भवति । तत्रापि प्रथमान्तराधिकारे पञ्चस्थलानि ‘एवं पणमिय सिद्धे' इत्यादि गाथासप्तकेन दीक्षाभिमुखपुरुषस्य दीक्षाविधानकथनमुख्यतया प्रथमस्थलम् । अतः परं वदसमिदिदिय' इत्यादिमूलगुणकथनरूपेण द्वितीये स्थले गाथाद्वयम् । तदनन्तरं गुरुव्यवस्थाजापनार्थं लिंगग्गहणे इत्यादि एका गाथा । तथैव प्रायश्चितकथन मुख्यतया 'पयदम्हि' इत्यादि गाथायमिति समुदायेन तृतीय स्थले गाथात्रयम् । अथाचारादिशास्त्रकाथितक्रमण तपोधनस्य संक्षेपसमाचारकथनार्थं अधिवासे ब' इत्यादि चतुर्थ